Book Title: Apbhramsa Bharti 2001 13 14
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 74
________________ अपभ्रंश भारती 13-14 अक्टूबर 2001-2002 61 करकंडचरिउ में सौन्दर्य - विधान डॉ. त्रिलोकीनाथ 'प्रेमी' - अपभ्रंश के जैन कवि यों तो वीतरागी संन्यासी थे; फिर भी, अपनी काव्य-कृतियों के सौन्दर्य - विधान में उनकी कारयित्री - प्रतिभा ने कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी है। वस्तु - सौन्दर्य, भाव - सौन्दर्य, अलंकार - सौन्दर्य, रूप-सौन्दर्य, प्रकृति-सौन्दर्य, अनुभूति - सौन्दर्य तथा लोकसांस्कृतिक सौन्दर्य आदि सभी के संघटन में उनकी नवनवोन्मेषशालिनी कला और कल्पना का सहज परिचय मिलता है। सचमुच, उनका सौन्दर्य-बोध अनूठा है। इसके लिए उन्हें जहाँ जो उपादान मिला उसी का उचित स्थान पर प्रयोग करके कथा-काव्यों को अद्वितीय बना दिया है। काव्य सौन्दर्य की साधना ही तो है। सौन्दर्यानुभूति का आनन्द से अनिवार्य सम्बन्ध है । सौन्दर्य-सृजन और सौन्दर्य - भावन में सृष्टा और सहृदय की स्वाद - रुचि का सापेक्षिक महत्त्व है। निदान संन्यासी होने पर भी ये सौन्दर्य के प्रति उदासीन कैसे रह सकते थे ? और, सच बात तो यह है कि विकारहीन हृदय को ही सौन्दर्यानुभूति अथवा काव्य की रसानुभूति होती है। इनसे तो मानवीय अन्तःकरण प्रांजल और परिष्कृत होता है। तभी तो सहृदय में सत् का प्रादुर्भाव होने से वह काव्य-रस का आस्वादन करता है। जीवन में कठोर संयम के कारण ये कवि - मुनि और आचार्य, अवश्य स्वयं को जल में कमल - पत्रवत् ही बनाये रखते होंगे तथा सौन्दर्य एवं काव्य-रस से अभिभूत होकर आनन्दित रहते होंगे । इस दृष्टि से इनका काव्यसृजन जहाँ इनकी सौन्दर्य - चेतना से अछूता नहीं रहा है, वहाँ अपने परा-आदर्श और उद्देश्य को भी पाने में समर्थ हुआ है। धार्मिक उपलब्धि ही इनका प्रधान प्रयोजन है । इसलिए कथा

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