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अपभ्रंश भारती 13-14
तहिं उज्जेणिपुरी परिणिवसइ इह जंवूदीवए अमरालय-दाहिण-दिसि भायए वर-णंदण-तरुवर-सुच्छायए। भरह-वरिसि सरि-सरयर-सुंदरे कीलण-मण-सुर-भूसिय-कंदरे। अस्थि विसउ सव्वत्थ सणामें अइ-वित्थिणु अवंती णामें। जहिं सासेहिं विवज्जिय णाऽवणि मुणि-पय-रय-वस-फंसण-पावणि । जहि ण कोवि कंचण-धण-धण्णहिं मणि-रयणिहिं परिहरिउ खण्णहिं। तिण दव्वु व वंधव-सुहि-सयणहिं जिण-भत्तिए अइ-वियसिय-वयणहिं। रूव सिरि वि ण रहिय-सोहग्गे आमोइय अमियासण-वग्गें। सोहग्गु वि णय-सीलु णिरुत्तउ सीलु ण सुअण पसंस वि उत्तउ। णिज्जल णई ण जलु वि ण सीयलु अकुसुमु तरु वि ण फंसिय-णहयलु।
तहिं उज्जेणिपुरी परि-णिवसइ जा देवाह मि माणइं हरसइ। पत्ता-घर-पंतिहिं मणि-दिप्पंतिहिं उवहसियाऽमर-मंदिर।
वहु हट्टहिं जण-संघट्टहिं वुह-यण-यणाणंदिर । वड्डमाणचरिउ 7.9.॥
- जम्बूद्वीप में सुमेरु पर्वत के दक्षिणीदिशा-भाग में श्रेष्ठ नन्दन वृक्षों की सघन छायावाले, नन्दी-सरोवरों से सुन्दर एवं क्रीडाशील देवों से भूषित घाटियोंवाले भरतवर्ष में समस्त समृद्धियों से सम्पन्न स्वनामधन्य एवं अतिविस्तीर्ण अवन्ती नामक देश है, जहाँ की पृथिवी (कहीं भी) धान्य से रहित (दिखाई) नहीं (देती) है, जहाँ की भूमि मुनिपदों की रज:स्पर्श से पवित्र है, जहाँ कोई भी पुरुष ऐसा न था जो कांचन, धन-धान्य तथा रम्य मणि-रत्नों से रहित हो, उस द्रव्य के उपबन्ध से जहाँ की वसुधा पर सज्जनगण जिनभक्ति से अति विकसित वदन होकर रहते हैं, जहाँ की कामिनियाँ रूपश्री से रहित नहीं हैं तथा जो मत्तगज की लीलागति से गमन करती हैं। रूपश्री भी ऐसी न थी जो कि सौभाग्य से रहित हो
और जो अमृताशन वर्ग (देवगणों) से अनुमोदित न हो, सौभाग्य भी ऐसा न था जो विनयशील युक्त न हो, शील भी ऐसा न था जो सुजनों की प्रशंसा से युक्त न हो। जहाँ की नदियाँ ऐसी न थीं जो जलरहित हों। जल भी ऐसा न था कि जो शीलता से युक्त न हो। जहाँ के वृक्ष कुसुमरहित नहीं है तथा ऐसा कोई वृक्ष न था जो नभस्तल को स्पर्श न करता है उस अवन्ति देश में उज्जयिनी नामकी एक पुरी है जो देवों के मन को भी हर्षित करती है।
घत्ता - जिस उज्जयिनी नगरी की बुधजनों के नेत्रों को आनन्दित करनेवाली मणियों से दीप्त यह पंक्तियाँ देव मन्दिरों (स्वर्ग) पर हँसती-सी प्रतीत होती हैं। जहाँ अनेक हाटबाजार लगते हैं, जिनमें लोगों की भीड़ लगी रहती है।
अनु. - डॉ. राजाराम जैन