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अपभ्रंश भारती 13-14 होता है लेकिन गहरा अफसोस भी होता है मात्र उन महिलाओं पर जिन्होंने घर से बाहर, अपना कार्य-क्षेत्र तो बदल लिया है लेकिन उसके अनुरूप अपनी बुद्धि का उपयोग नहीं किया। इससे वे पुरुषों का पद ग्रहण करने की स्पर्धा में तो पड़ ही रही हैं साथ ही अपने स्त्रीत्व-रूप मूलाधार को भी नष्ट किये जा रही हैं। परिणामतः बहिर्मुख होती हुईं वे ऐश्वर्यवती महिलाओं के रूप-रंग, हाव-भाव, केश-विन्यास आदि की तरफ इस कदर बढ़ रही हैं कि आईने में वे अपने चित्र को दूसरी स्त्रियों के चित्र में कल्पित कर देखती हैं। इससे उन्हें अपनी मूल ज्योति की ओर देखने का अवकाश ही नहीं मिलता। दिशा-शून्य होकर केवल तृष्णा की पूर्ति के लिए दौड़ती हुई उन्हें देखकर लगता है कि वह समय अब ज्यादा दूर नहीं जब स्त्रियों की मर्यादा का गौरव लुप्त हो जायेगा। ऐसे में अब इन महिलाओं के स्त्रीत्व की रक्षा हेतु उन महिलाओं को आदर्श रूप में रखने की आवश्यकता है जो सदियों से आत्मिक विकास के अनमोल रत्न रही हैं।
अपभ्रंश भाषा के महाकवि स्वयंभू द्वारा रचित 'पउमचरिउ' काव्य की नायिका सीता भी ऐसा ही आदर्श रत्न है जो प्रत्येक महिला को सहज चित्त, शीलवान, गुणानुरागी तथा नीतिज्ञ बनने का सन्देश देती है। वह यह भी घोषणा करती है कि इन गुणों को अपनाकर आज भी वह विश्व के सन्दर्भ में भारतीय संस्कृति के लुप्त होते हुए गौरव को पुनः प्रतिष्ठित स्थान दिलवाने में समर्थ है।
‘पउमचरिउ' की यह सीता नारी-सुलभ सहज भावों से युक्त होने से सहज चित्त है। इस रूप में वह कभी भयभीत होकर करुण विलाप करती हुई अपने भाग्य को कोसती नज़र आती है तो कभी मातृत्व भाव से शुभकामनाएँ देती हुई दिखती है। वही सीता रावण द्वारा हरण किये जाने पर राम से वियुक्त होती है तो अपने शील की रक्षा के प्रयत्न में कठोर बन जाती है। उसके जीवन में शील के सौन्दर्य को विकृत करनेवाले अनेक उपसर्गकारी प्रसंग आते हैं किन्तु सीता उपसर्गों की उस घड़ी में अविचलित होकर अपने शील की रक्षा तो करती ही है साथ ही उपसर्ग करनेवालों को भी प्रभावहीन कर देती है। शील-सौन्दर्य को मलिन करनेवाले ये उपसर्ग भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के द्वारा भिन्न-भिन्न रूपों में हुए हैं। सीता ने भी अपने शील की रक्षा में उन्हीं उपसर्गों के ठीक अनुरूप भिन्न-भिन्न रूपों में ही अपने विवेक का उपयोग किया है।
इस तरह इन सहज, कोमल तथा शील की रक्षा में कठोर भावों से युक्त सौन्दर्य को प्राप्त सीता के जीवन के पक्षों को कवि स्वयंभू ने अपने ‘पउमचरिउ में बहुत ही सरल एवं सुन्दर रूप में संजोया है जो इस प्रकार है - 1. नारी-सुलभ सहज भावों से युक्त सीता
भक्तिभाव से ओत-प्रोत - हिमालय से निकली गंगा नदी, ताराओं से अलंकृत