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अपभ्रंश भारती 13-14 उन्हें ध्यान से डिगाना चाहा। पर राघव मुनि ध्यान से नहीं डिगे। तब प्रतीन्द्र ने अपने द्वारा किये गये इस अविनय के लिए क्षमा माँगते हुए जरा और मरण का छेदन करनेवाले उपदेश देने की प्रार्थना की। तब महामुनि राम ने कहा- 'हे इन्द्र ! तुम राग को छोड़ो। जिन भगवान् ने जिस मोक्ष का प्रतिपादन किया है वह विरक्त को ही होता है। सरागी व्यक्ति का कर्म-बन्ध
और भी पक्का होता है।' इस उपदेश को सुनकर पवित्र मन हो सीतेन्द्र ने मुनीन्द्र राम की वन्दना की। फिर वहाँ से जाकर नरक में पड़े हुए लक्ष्मण, शम्बूक व रावण को भी बोधित कर सम्यग्दर्शन स्वीकार करवाया।
इस तरह तन व मन दोनों की सुन्दरता से सुशोभित सीता के उत्कृष्ट चरित्र को अपभ्रंश भाषा के महाकवि स्वयंभू ने अपने ‘पउमचरिउ' के माध्यम से बहुत ही सरल एवं रोचक रूप में प्रस्तुत किया है।
आज के इस विषम भौतिक युग में सीता का जीवन-चरित्र सभी पुरुषों व महिलाओं को श्रेष्ठ जीवन जीने की उत्तम राह दिखाता है।
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'पउमचरिउ', महाकवि स्वयंभू, 32.8, सम्पादक - डॉ. एस.सी.भायाणी, अनुवादक - डॉ देवेन्द्रकुमार जैन, प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी, 1970 वही, 34.12 वही, 36.5 वही, 36.11 वही, 67.7 वही, 81.3 वही, 81.12,13 वही, 50.3 वही, 35.2 वही, 38.18,19 वही, 41.14,15 वही, 41.16 वही, 42.6,7,8
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