Book Title: Apbhramsa Bharti 2001 13 14
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 51
________________ 38 अपभ्रंश भारती 13-14 सीता-वियोग-प्रसंग में एक बार पुनः स्वयंभूदेव जीव-उत्पत्ति की प्रक्रिया से 'अशुचि भाव' पर विचार करते हैं। विरह में व्याकुल राम को चारण मुनियों द्वारा देह-निस्सारता एवं नश्वरता का ज्ञान इन शब्दों में कराया जाता है - तहि तेहएँ रस-वस-पूय-भरें। णव मास वसेवउ देह-धरें। णव-णाहि-कमलु उत्थल्लु जहिं। पहिलउ जे पिण्ड-संवन्धु तहिं । दस-दिवसु परिट्टिउ रुहिर-जलें। कणु जेम पइण्ण्उ धरणियलें। विहिँ दसरत्तेहिं समुट्ठियउ । णं जलें डिण्डीरु परिट्टियउ । तिहिँ दसरत्तेहिँ तुव्वउ घडिउ । णं सिसिर-बिन्दु कुङ्कुमें पडिउ। दसरत्तं चउत्थएँ वित्थरिउ । णावइ पवलकुरु णीसरिउ । पञ्चमें दसरत्तें जाव वलिउ । णं सूरण-कन्दु चउप्फलिउ। दस-दसरत्तेंहिँ कर-चरण सिरु । वीसहिं णिप्पण्णु सरीरु थिरु । णवमासिउ देहहों णीसरिउ । वड्ढन्तु पडीवउ वीसरिउ ॥ 39.8.1-9 ।। - उस वैसे रस, वसा और पीप से भरे हुए देहरूपी घर में (जीव को) नौ माह बसना पड़ता है। जहाँ नवनाभिरूपी कमल उभरता है, (नरा) पहला शरीर सम्बन्ध वहीं होता है। दस दिन तक रुधिररूपी जल में रहता है, उसी प्रकार जिस प्रकार धरती पर कण पड़ा रहता है। फिर बीस रात में वह अंकुरित होता है, मानो जल में फेन उत्पन्न हुआ हो, तीस रात में वह बुद्बुद बन जाता है, मानो केशर में बर्फ-कण जम गया हो। चालीस दिन में उसका विस्तार होता है, जैसे प्रवाल का अंकुर निकल आया हो। पचास दिन में वह मुड़ता है तो जैसे मानो चारों ओर से सूक्ष्म जमीकन्द फल गया हो। फिर सौ दिन में कर; चरण और सिर बनते हैं, फिर चार सौ रातों में शरीर स्थित होता है, इस प्रकार नौ माह में शरीर से बाहर निकल आता है और बड़ा होकर उलटा उसे भूल जाता है।

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