Book Title: Apbhramsa Bharti 2001 13 14
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 57
________________ -- 44 अपभ्रंश भारती 13-14 ___- कितने ही दिनों के बाद राम भी त्रिभुवन कल्याणकारी अजर-अमरपुरों का पालन करनेवाले आदरणीय आदिनाथ भगवान् के निकट चले गये। 'पउमचरिउ' में धर्म एवं मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग निवृत्तिपरक है। राग की प्रचुरता को समाप्त करने के लिए जिनेन्द्र का स्मरण-चिन्तवन-पूजा की जाती है। स्वयंभूदेव ने दोनों ही प्रकार भाव-पूजा (गुणों का चिन्तवन) एवं द्रव्य पूजा (जल, चन्दनादि अष्टद्रव्य पूजा) का आश्रय महाकाव्य के विभिन्न प्रसंगों में लिया है। जैन धर्म में अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधि-दुर्लभ तथा धर्म भावना नामक बारह भावनाओं को अनुप्रेक्षा के रूप में जाना जाता है। जिनके बार-बार चिन्तवन से कषायकलापों में लीन चित्तवृत्तियाँ वीतरागता की ओर प्रेरित होती हैं। कर्ममुक्ति अर्थात् मोक्षप्राप्त्यर्थ जैन दर्शन का लक्ष्य रहा है - वीतराग विज्ञानता की प्राप्ति । यह वीतरागता सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपी रत्नत्रय की समन्वित साधना से उपलब्ध होती है। इसके अनुसार जीव-अजीव आदि नव-तत्त्वों का यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान, तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप पर किया गया श्रद्धान/दृढ़ प्रतीति अर्थात् स्वात्मप्रत्यक्षपूर्वक स्व-पर भेद या कर्त्तव्य-अकर्तव्य का विवेक सम्यग्दर्शन है। यह मोक्ष का प्रथम सोपान माना गया है।" - जिनेन्द्र-पूजा सांसारिक प्राणियों को दुःख-मुक्त कर मोक्ष की ओर ले जाती है। यह भक्ति मोहासक्ति के त्याग, परीषह-सहन-क्षमता एवं तपश्चरण पर निर्भर करती है। रामचरित मानस में वर्णित भक्ति प्रवृत्तिपरक है- 'रघुपति भगति सुलभ सुखकारी'। सांसारिक मनुष्य इस मार्ग पर चलकर ईश्वर का दर्शन कर सकता है। सन्त-समागम, दम-शम-शील-अपरिग्रहअहिंसा-दया-सत्याचरण एवं ध्यान का महत्त्व दोनों में समान है। काम-मद-दम्भ का परित्याग दोनों मार्गों में अनिवार्य है। किन्तु प्रवृत्ति मार्ग जहाँ परब्रह्म के अवतार रूप में अलौकिक दर्शन के अनिर्वचनीय आनन्द तक पहुँचाता है, वहाँ पहुँच समस्त बन्धन स्वतः ही कट जाते हैं; वहीं निवृत्ति मार्ग विचारमूलक वैराग्य, तत्त्वज्ञान (पउमचरिउ में केवलज्ञान) एवं ध्यान/समाधि द्वारा मोक्ष तक पहुँचाता है। शृंगार रस के निर्वाह हेतु स्वयंभूदेव ने परस्पर अनुराग-वर्णन, अंग-सौन्दर्य-वर्णन, काम-दशा-चित्रण, सुरति-चित्रण, रमण आदि तथा विप्रलम्भ का विधान किया है। कैकेयी, कल्याणमाला, सीता, विशल्या, कमलोत्सवा, मन्दाकिनी, चन्द्रभागा, मन्दोदरी तथा रावण के समस्त अन्त:पुर के आंगिक सौन्दर्य-चित्रण, नख-शिख-वर्णन में कवि ने उपमा, उत्प्रेक्षा, उदाहरण आदि अलंकार-मणियाँ बिखेर-सी दी हैं। हरि पहरन्तु पसंसिउ जावें हिं। जाणइ णयणकडक्खिय तावें हिँ। सुकइ-कह व्व सु-सन्धि सु-सन्धिय ।

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