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अपभ्रंश भारती 13-14 राजेन्द्र चोल आदि अनेक राजा इसके निदर्शन हैं। कृषि-कर्म प्रारम्भ में वैश्यों का ही कार्य था किन्तु अनेक वैश्य बौद्ध और जैन धर्म के प्रभाव के कारण इस कर्म को हिंसायुक्त और पापमय समझकर छोड़ बैठे थे। यह कर्म भी शूद्रों को करना पड़ा। किन्तु नवमी-दसवीं शती में कृषि-कर्म का विधान ब्राह्मणों और क्षत्रियों के लिए भी होने लंग गया था किन्तु खानपान, छुआ-छूत, अन्तरजातीय विवाह आदि की प्रथाओं में धीरे-धीरे कट्टरता आने लगी और भेद-भाव बढ़ता गया। बाल-विवाह विशेषकर कन्याओं का बाल्यावस्था में विवाह भी प्रारम्भ हो गया। इस काल के राजाओं और धनाढ्यों में बहु-पत्नी विवाह की प्रथा प्रचलित थी जैसाकि अनेक ग्रन्थों से सिद्ध होता है। इस प्रकार चौदहवीं-पन्द्रहवीं शती तक राजनीति जीवन के साथ-साथ भारतीयों का सामाजिक जीवन भी जीर्ण-शीर्ण हो गया था। यद्यपि समाज का ढाँचा इस प्रकार शिथिल हो गया था तथापि उसमें बाह्य प्रभाव से आक्रान्त न होकर अपनी सत्ता बनाए रखने की क्षमता आंशिक रूप में विद्यमान रही। समाज ने दृढ़तापूर्वक विदेशियों की सभ्यता और संस्कृति का सामना किया। साहित्यिक परिस्थिति
ज्ञान, कला और साहित्य का उन्नत रूप गुप्तयुग में था। दर्शन, गणित, ज्योतिष, काव्य-साहित्य सभी अंगों में भारतीयों ने गुप्तयुग में जो उन्नति की उसका क्रम एक-दो शती बाद तक चलता रहा। नालन्दा और विक्रमशिला के बिहार ज्ञान के प्रसिद्ध केन्द्र थे। कन्नौज भी वैदिक और पौराणिक शिक्षा का केन्द्र था। धीरे-धीरे ज्ञान-सरिता का प्रवाह कुछ मन्द हो गया। अलंकारों के आधिक्य से काव्यों में वह स्वाभाविकता और वह ओज न रहा। भाष्यों
और टीका-टिप्पणियों के बाहुल्य से मौलिकता का सर्वथा अभाव हो गया। ग्यारहवीं-बारहवीं शती में कश्मीर और काशी ही नहीं बंगाल में नदिया, दक्षिण भारत में तंजौर और महाराष्ट्र में कल्याण भी विद्या के केन्द्रों के लिए प्रसिद्ध हो गए थे। कन्नौज और उज्जैन भी पूर्ववत् विद्या-केन्द्र बने हुए थे। अलंकारशास्त्र, दर्शन, धर्मशास्त्र, न्याय, व्याकरण, ज्योतिष, वैद्यक
और संगीत आदि विषय ज्ञान के क्षेत्र थे। इस काल में काव्य प्रकाश, सिद्धान्त शिरोमणि, नैषधचरित, गीत-गोविन्द, राजतंरगिणी जैसे अनेक ग्रन्थ प्रसूत हुए। संस्कृत के अतिरिक्त प्राकृत और अपभ्रंश में भी ग्रन्थों की सर्जना हो रही थी। बंगाल में चौरासी सिद्धों ने अपभ्रंश में रचनाएँ की। पालवंशी बौद्ध थे। उन्होंने लोकभाषा को प्रोत्साहित किया। स्वयंभू और पुष्पदन्त जैसे अपभ्रंश भाषा के क्रान्तिदर्शी कवियों ने भी राष्ट्रकूट राजाओं के आश्रय में अपभ्रंश साहित्य को वर्द्धित किया। मुंज और भोज प्राकृत के साथ-साथ अपभ्रंशप्रेमी भी थे। अपभ्रंश के रचयिताओं ने संस्कृत काव्यों का स्वाध्याय किया था। बाण की श्लेष शैली पुष्पदन्त में स्पष्ट रूप से परिलक्षित है। स्वयंभू ने अपने पूर्ववर्ती कवियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की है। जैनाचार्यों ने अधिकांश ग्रन्थ श्रावकों के आग्रह पर ही रचे हैं। श्रावकों की भाषा बोलचाल की भाषा होती थी। अतएव जैनाचार्य तत्कालीन लोकभाषा अपभ्रंश में ही