Book Title: Apbhramsa Bharti 2001 13 14
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती 13-14
8.
9.
10.
11.
हर-लहर - गुण गहणेहिं दूअहों वयणेहिं पहु पहरेव्वउ परिहरइ ।
. विज्जहे कारणे रावणु जग-जगडावणु संति - जिणालउ पइसरइ ॥ 71.1 ।। वही णवर पवियम्भमाणेहि दोहिं पि सुग्गीव पुत्तेहिँ ।
अण्णाय - वन्तेहिँ उग्गिण्ण-खग्गेहिं रेक्कारिओ रावणो ।।
तह वि अमणो ण खोहं गओ सव्व रायाहिरायस्स ।। 4.71.15 ॥ वही
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जं एवं वि खोहों ण गउ राउ । तं विज्जहें आसण-कम्पु जाउ ॥
आइय अंधारउ जउ करन्ति । बहुरूविणी वहु-रूवई धरति ॥ 72.12.3-4। वही
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तावणिसायर-णाहु स - विज्जउ ।
णं स- कलत्तउ सुरवइ विज्जउ ॥ 72.14.1 ॥ वही
72.12, वही
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राम बिरोध बिजय चह सठ बस अति अग्य । 84 ॥
जग्य विधंसि कुसल कपि आए रघुपति पास ॥ 85 ॥ लंका., रा.च.मा.
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तो गहिय- चंदहासाउहेण । हक्कारिउ लक्खणु दहमुहेण ।। लइ पहरु पहरु किं करहि खेउ । तुहुँ एक्के चक्कें सावलेउ । हुई आएं व गण्णु । किं सीहहों होइ सहाउ अणु ॥ तं णिसुणेवि विप्फुरियाहरेण । मेल्लिउ रहंगु लच्छीहरेण ॥ उअयइरिहें णं अत्थइरि गउ सूर - विम्बु कर मण्डियउ ।
स इँ भु ऍहि हणन्तों दहमुहहों मण्ड उर-त्थलु खण्डियउ ॥75.22.6-10॥ प.च.
खँचि सरासन श्रवन लगि छाड़े सर एकतीस ।
रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फनीस ॥ 102 ॥
सायक एक नाभि सर सोषा । अपर लगे भुज सिर करि रोषा ।।

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