Book Title: Apbhramsa Bharti 2001 13 14
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती 13-14
लै सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रूंड महि नाचा॥ डोली भूमि गिरत दसकंधर । छुभित सिंधु सरि दिग्गज भूधर ।। धरनि परेउ द्वौ खण्ड बढ़ाई। चापि भालु मर्कट समुदाई। 103 ॥ लंका., रा.च.मा.
12.
'जय णन्द वद्ध' मंगल- रवेहिँ चिंतवइ विहीसणु जाय संक। “लइ णठ्ठ कज्जु उच्छिण्ण लंक। मुउ रावणु संतइ तुट्ट अज्जु । मंदोयरि विहव विण्डु रज्जु ।। पभणइ कुमारु करें 'चित्तु धीरु' । छुडु सीय समप्पइ खमइ वीरु ।। 75.22.2-5 ।। वही
13.
नाभिकुण्ड पियूष बस याकें। नाथ जिअत रावनु बल ताकें। सुनत विभीषण बचन कृपाला। हरषि गहे कर बान कराला ।। 102 ।। लंका ., रा.च.मा.
14.
वणु सेविउ सायरु लंकियउ णिहउ दसाणणु रत्तएण। अवसाण-कालें पुणु राहवेण घल्लिय सीय विरतेएण। लोयहुँ छंदॆण तेण तेण तेंण चित्तें। राहव-चंदेंण तेण तेण तेण चित्तें। पाण-पियल्लिया तेंण तेण तेण चित्तें। जिह वणे घल्लिया तेण तेण तेंण चित्तें।
81.1 ।। वही
15.
अहो रायाहिराय परमेसर। णिम्भल-रघुकुल-णहयल-ससहर ।। दुद्दभ-दणुऊ-देह-मय-मद्दण। तिहुअण-जण-मण-णयणाणंदण ।। जइ अवराहु णाहिं धर-धारा। तो पट्टणु विण्णवइ भडारा॥ पर-पुरिसु रमेवि दुम्महिलउ देंति पडुत्तर पइ-यणहों। किं रामु ण भुंजइ जणयसुय बरिसु वसेवि घरे रामणहो। 81.3.7-10। वही

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