Book Title: Apbhramsa Bharti 2001 13 14
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 42
________________ 29 अपभ्रंश भारती 13-14 __ - सुख मधु की बूँद की तरह है और दुःख मेरु पर्वत की तरह बढ़ता जाता है; वही कर्म अच्छा और हितकारी है कि जिससे अजर-अमर पद प्राप्त किया जा सके। 'पउमचरिउ' में निर्दिष्ट भक्ति का मूल आधार है ज्ञान; ज्ञान जिससे मोक्ष प्राप्त होता है। धर्म से वैराग्य और वैराग्य से ज्ञान उत्पन्न होता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल मानते हैं - “धर्म का प्रवाह कर्म, ज्ञान और भक्ति, इन तीन धाराओं में चलता है। इन तीनों के सामंजस्य से धर्म अपनी पूर्ण सजीव दशा में रहता है। कर्म के बिना वह लूला-लँगड़ा; ज्ञान के बिना अन्धा; भक्ति के बिना हृदयहीन क्या निष्प्राण रहता है।' गोस्वामी तुलसीदास की भक्ति को धर्म और ज्ञान की रसानुभूति माननेवाले आचार्य शुक्ल मानते हैं कि ईश्वर के धर्मस्वरूप की रमणीय अभिव्यक्ति लोक की रक्षा और रंजन में होती है। 'मानस' में सत्संगति, गुरुपद-सेवा, ईश्वर का गुण-गान, मन्त्र-जाप, दमशील आदि का विधान, सर्वत्र ईश्वर-दर्शन, सन्तों को ईश्वर से अधिक सम्मान दे, यथालाभ सन्तोष, परदोष न देखना, छलहीनता, ईश्वर पर अटूट विश्वास को भक्ति का सोपान माना गया है। पुरुषार्थ चतुष्टय/मूल्यों के चतुर्वर्ग में से धर्म एवं मोक्ष की प्राप्ति इस भक्ति का मुख्य लक्ष्य है। मानस में वर्णित भक्ति का पथ सहज एवं सर्वसुलभ है; किन्तु, 'पउमचरिउ' में धर्म (जिन-प्रव्रज्या) का पथ अत्यन्त दुःसह/कठिन है। प्रव्रज्या हेतु इच्छुक भरत को समझाते हुए राजा दशरथ कहते हैं - जिण-पवज्ज होइ अइ-दुसहिय । के वावीस परीसह विसहिय । के जिय चउ-कसाय-रिउ दुज्जय। कें आयामिय पञ्च महन्वय । कें किउ पञ्चहुँ विसयहुँ णिग्गहु । के परिसेसिउ सयलु परिग्गहु । को दुम-मूलें वसिउ वरिसालएँ । को एकङ्गै थिउ सीयालएँ। के उण्हालएँ किउ असावणु। ऍउ तव-चरणु होइ भीसावणु ॥ 24.4.5-11 ।। - जिन-प्रव्रज्या अत्यन्त असहनीय होती है। बाईस परीषहों को सहन किसने किया? अजेय चार कषायरूपी शत्रुओं को किसने जीता ? किसने पाँच महाव्रतों का पालन किया ? पाँच विषयों का निग्रह किसने किया ? किसने समस्त परिग्रहों का त्याग किया ? वर्षाकाल के समय वृक्ष के नीचे कौन रहा ? शीतकाल में अकेला कौन रहा ? उष्णकाल में आतापन तप

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