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'लक्खण - रामहुँ धुउ अप्पिजउ जणय-सुअ ।'
को
दूत
राम भी रावण के
णिहि - रयणइँ
हय-गय- रज्जू ।
सव्वइँ सो ज्जें लएउ अम्हहुँ पर सीयऍ कज्जू ।। 70.7.10 ।।
• निधियाँ और रत्न, अश्व और गज एवं राज्य सब कुछ वह ले ले, हमें तो केवल सीता चाहिए- के रूप में सीता-प्राप्ति का अपना संकल्प जता देते हैं ।
अपभ्रंश भारती 13-14
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रावण वध के पूर्व लक्ष्मण- 'करें चित्तु धीरु । छुडु सीय समप्पड़ खमइ वीरु (- सीता को अर्पित कर देने पर रावण को क्षमा कर दूंगा') शब्दों में विभीषण को आश्वस्ति देते हैं। 57वीं सन्धि से 76वीं सन्धि तक लगभग 11 सन्धियों में वीर रस-निष्पत्ति ही प्रधान है । अन्य सन्धियों में भी वीर रस की कमी नहीं। 12
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अपने पिता दशरथ से आदेश पा राम-लक्ष्मण पुलिन्दराज तम के हाथों से जनक एवं कनक का उद्धार करते हैं जिसके फलस्वरूप जनक राम को जानकी, द्रोण लक्ष्मण को विशल्या तथा शशिवर्द्धन अपनी आठ मनोहर कन्याएँ संकल्पित करते हैं।
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लक्ष्मण-रुद्रभूति-युद्ध प्रसंग में रस सृष्टि हेतु न केवल आलंकारिक भाषा का उपयोग हुआ है अपितु कवि ध्वनि - संयोजन द्वारा गत्यात्मक बिम्ब - सृष्टि करने में सफल हुआ है अफ्फालिउ महुमहणेण धणु । धणु सद्दे समुहि खर- पवणु । खर-पवण - पहय जलयर रजिय । रडियागमे वज्जासणि पडिय । पडिया गिरि सिहर समुच्छलिय । उच्छलिय चलिय महि णिद्दलिय । णिद्दलिय भुअङ्ग विसग्गि मुक्क । मुक्कन्त णवर सायरहुँ दुक्क । ढुक्कन्तेंहिं वहल फुलिङ्ग घित्त । घण सिप्पि सङ्ख - संपुड़ पलित्त । धगधगधगन्ति मुत्ताहलाइँ । कढक ढकढन्ति सायर जलाइँ । हसहसहसन्ति जलजलजलन्ति
पुलिणन्तराइँ ।
भुअणन्तराइँ ॥ 27.5.1-7॥