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अपभ्रंश भारती 13-14 जैनों ने अपभ्रंश साहित्य की सुरक्षा में बहुत योगदान दिया है। इनका साहित्य बड़ा सम्पन्न है। जैनों ने दार्शनिक ग्रन्थों के अतिरिक्त काव्य, नाटक, व्याकरण, ज्योतिष, आयुर्वेद, कोश, छन्द, अलंकार, गणित तथा राजनीति आदि विषयों पर भी लिखा है। फिर गुजराती, हिन्दी, राजस्थानी, तेलुगू, तमिल और विशेषरूप से कनड़ी साहित्य में उसके प्रदेय का
आधिक्य है।" जैनाचार्य अपने पाण्डित्य से अनेक राजाओं के कृपापात्र बने और उनसे अनेक ग्राम दान-रूप में प्राप्त किए। दक्षिण में शैवधर्म के प्रबल होने से जैनधर्म को धक्का लगा। शैवधर्म ही जैनधर्म को दक्षिण से उखाड़ने का प्रधान कारण है। गुजरात और राजपूताना में जहाँ राजपूत-क्षत्रिय अपनी तलवार और शस्त्र विद्या के लिए प्रसिद्ध थे, जैनधर्म का प्रचार होना आश्चर्य ही है। हिंसा और अहिंसा की लहर भारत में क्रम-क्रम से आती-जाती रही। इस काल में फिर अहिंसा की लहर ज़ोर से आई, जिससे सारा भारत प्रभावित हो गया। गुजरात, मालवा और राजपूताना में इसी लहर के प्रभाव से जैनधर्म फिर चमक पडा और इसमें हेमचन्द्र जैसे अनेक जैन आचार्यों का योगदान उल्लेखनीय रहा है। यद्यपि जैनधर्म उत्तर भारत के अन्य प्रदेशों में और बंगाल में न फैल सका तथापि अनेक जैन व्यापारी इन प्रदेशों में भी फैले और अहिंसा का प्रचार वैष्णवधर्म के साथ सिन्धु नदी से लेकर ब्रह्मपुत्र तक हो गया। अहिंसा के साथ पशु-हिंसा और मांसभक्षण भी रुक गए।
वैष्णवधर्म में जैनों के समान तप और त्याग की वह कठोरता न थी, अतएव जनसामान्य ने इसे सरलता और शीघ्रता से स्वीकार लिया।" इस प्रकार ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में पश्चिम भारत में जैनधर्म, दक्षिण में शैवधर्म, पूर्व में और उत्तर में वैष्णवधर्म विशेष रूप से फैला हुआ था। वैष्णव और शैव भी अनेक मतों में बँट गए। उन सबके अपने-अपने धार्मिक सिद्धान्त, विचार और धारणाएँ बन गई थीं। इन्हीं से उत्पन्न भिन्न-भिन्न दार्शनिक विचारधाराओं में विद्वान उलझ गए। परस्पर भेद-भावना बढ़ गई। भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं की पूजा के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के आगम एवं तंत्र-ग्रन्थों का प्रणयन हुआ। विचारभेद के अनुसार समाज में भी अनेक परिवर्तन हो गए। प्राचीन वैदिक धर्म में धीरे-धीरे परिर्वतन होता रहा। परमात्मा के भिन्न-भिन्न नामों को देवता मानकर उनकी पृथक्-पृथक् उपासना आरम्भ हो गई थी। ईश्वर की भिन्न-भिन्न शक्तियों और देवताओं की पत्नियों की भी पूजा होने लगी। ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, बाराही, नरसिंही और ऐंद्री- इन सात शक्तियों को मातृका को नाम दिया गया। काली, कराली, चामुण्डा और चण्डी नामक भयंकर और रुद्र शक्तियों की भी कल्पना की गई। आनन्द भैरवी, त्रिपुर-सुन्दरी और ललिता आदि विषयविलासपरक शक्तियों की भी कल्पना की गई। उनके उपासक शाक्त, शिव और त्रिपुरसुन्दरी के योग से ही संसार की उत्पत्ति मानते थे। वैदिक ज्ञान के मन्द पड़ जाने पर पुराणों का प्रचार हुआ। पौराणिक संस्कारों का प्रचलन चल पड़ा। पौराणिक देवताओं की पूजा बढ़ गई। यज्ञ कम हो गए, श्राद्ध-तर्पण बढ़ गया । मन्दिरों और मठों का निर्माण बढ़ता गया। व्रतों,