Book Title: Apbhramsa Bharti 2001 13 14
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 16
________________ अपभ्रंश भारती 13-14 3 राजशक्ति पूर्ण अस्त-व्यस्त एवं छिन्न-भिन्न हो गई और धीरे-धीरे समस्त उत्तरापथ इस्लाम के अधीन हो गया । धार्मिक परिस्थितियाँ धार्मिक क्षेत्र में अनेक मत-मतान्तरों का जन्म हुआ । 'हर्षचरित' के अष्टम अध्याय में दिवाकर मिश्र के आश्रम में रहनेवाले उन्नीस सम्प्रदायों के अनुयायियों के नाम गिनाए हैं । अर्हत, मस्करी, श्वेतपट, पाण्डुरिभिक्षु, भागवत, वर्णी, केशलुंचन, कामिल, जैन, लोकायतिक, काणाद, औपनिषद, ऐश्वरकारणिक, कारंधमी, धर्मशास्त्री, पौराणिक, साप्ततन्तव शाब्द, पाँचरात्रिक आदि दिवाकर मिश्र के आश्रम में नानादेशीय सिद्धान्त विद्यमान थे ।" इससे विदित होता है कि भारत में बौद्ध, जैन तथा वैदिक धर्मों का प्रचुर परिमाण में प्रचार था । उत्तरार्ध में इस्लाम धर्म का प्रवेश हो गया । यह सुखद आश्चर्य है कि सभी धर्मावलम्बियों ने अपभ्रंश में रचना की और उन रचनाओं धार्मिक प्रभाव परिलक्षित है। बौद्धधर्म महात्मा बुद्ध का मध्यम मार्ग था जिसमें आचार, शुद्धता, अहिंसा तथा सर्वजनहिताय की भावना बद्धमूल थी । वर्णाश्रम धर्म की मान्यता न थी । हर्षवर्धन के समय बौद्धधर्म अवनत और विकृति की स्थिति में था । बौद्धधर्म महायान और हीनयान में विभक्त हुआ। महायान भी अनेक उपयानों में विभक्त हो गया । महायान का शून्यवाद और विज्ञानवाद साधारण जनता को प्रभावित न कर सका। इसमें महासुखवाद के सम्मिश्रण से वज्रयान प्रादुर्भाव हुआ। मंत्र-तंत्रों का प्रयोग बढ़ने लगा। मंत्र, हठयोग और मैथुन – इन तीन तत्त्वों के समावेश से बौद्ध धर्म मंत्रयान में परिणत हो गया ।' मंत्रयान, वज्रयान तथा सहजयान बौद्धधर्म के ही विकृत रूप थे । सहजयान का लक्ष्य था कि सहज मानव की जो आवश्यकताएँ हैं उन्हें सहज रूप में पूरा होने दिया जाए। लेकिन सहजयान में भी तंत्र, मंत्र, भूत-प्रेत, जादू-टोना आदि अनेक मिथ्याधारणाओं का प्राबल्य हो गया । सहजयान तथा वज्रयान से सिद्ध बहुत प्रभावित हुए । चौरासी सिद्धों द्वारा ही बौद्धधर्म अधिक प्रभावोत्पादक बना। चीनी यात्रियों के लेखों से संघों की पतनावस्था का संकेत प्राप्त होता है। इस काल के राष्ट्रकूट और गुर्जर सोलंकी राजाओं में से कुछ का जैनधर्म पर बहुत अनुराग था, किन्तु इन राजाओं पर जैनधर्म की अहिंसा का अधिक प्रभाव न पड़ा था। जैन गृहस्थ ही नहीं जैन मुनि भी तलवार की ( वीर रस की ) महिमा गाते हुए देखे जाते हैं। जैनधर्म में व्यापारी वर्ग का प्राधान्य था किन्तु अनेक व्यापार करनेवाली जातियों ने जिन्होंने जैनधर्म को अपनाया उन्होंने इस धर्म के अहिंसा सिद्धान्त को खूब निभाया। इनमें से अनेक जातियों ने जो पहले क्षत्रिय जातियाँ थीं, किसी समय शकों और यवनों से लोहा लिया था, अब लक्ष्मी की शरण में जाकर उन्होंने अपने क्षत्रियोचित पराक्रम को खो दिया । दया और अहिंसा, व्रत, उपवास और तपस्या की जैन धर्म में प्रधानता रही।" जैनधर्म भी कालान्तर में दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दो आम्नायों में बँट गया। दक्षिण में दिगम्बर तथा गुजरात-राजपूताना में श्वेताम्बरों का प्राधान्य रहा।

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