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अनेकान्त 59/1-2
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के साधु थे और उनके लिए पूज्य थे। उनके पूर्ववर्ती होने से उनके द्वारा आदर सहित उनका स्मरण किया गया है। डॉ. राजेन्द्र प्रकाश भटनागर के अनुसार इनके नाम का पाठान्तर 'सिंह सेन' मिलता है। डॉ. भटनागर का यह कथन किस आधार पर है यह स्पष्ट नहीं है, तथापि इस नाम से भी उनके विषय में कोई विवरण प्राप्त नहीं होता है, अतः उनका व्यक्तित्व, कृतित्व एवं काल सम्बन्धी स्थिति स्पष्ट नहीं है। इतना अवश्य है कि कल्याणकारक में इनके द्वारा रचित ग्रंथ का उल्लेख होने से इनका श्री उग्रादित्याचार्य से पुर्ववर्ती होना सुनिश्चित है।
दशरथ गुरु
इनका भी उल्लेख 'कल्याणकारक' ग्रंथ में 'कायचिकित्सा' नामक ग्रंथकर्ता के रूप में किया गया है। यथा “काये या सा चिकित्सा दशरथगुरुभिः।" इससे प्रतीत होता है कि दशरथ गुरु जो उग्रादित्याचार्य के पूर्ववर्ती थे ने कायचिकित्सा विषय पर आधारित ग्रंथ की रचना की थी और उस समय वह ग्रंथ प्रचलित था, किन्तु अब नहीं है।
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास (भाग-2) के अनुसार दशरथ गुरु पंचस्तूपान्वयी वीरसेन के शिष्य और जिनसेनाचार्य के सधर्मा बन्धु गुरु भाई थे। जिनसेनाचार्य अत्यधिक मेधावी और प्रकाण्ड विद्वान् थे। जिनसेनाचार्य का सतीर्थ होने से दशरथ गुरु का भी वही समय निर्धारित होता है जो जिनसेनाचार्य का है। उन्होंने अपनी जय धवला टीका शक स. 759 (सन् 837) में पूर्ण की थी। तदनुदसार उनका समकालीन होने से दशरथ गुरु का समय भी सन् 800 से 837 ई. होना चाहिये।
उग्रादित्याचार्य
श्री उग्रादित्याचार्य उन अप्रतिम जैन मनीषियों में से हैं जिन्हें 'प्राणावाय पूर्व' का साधिकार पूर्ण ज्ञान था। इसका साक्षी है उनके