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एक श्रुताराधक का वियोग : अनभ्र वज्रपात
- डॉ. जय कुमार जैन वीर सेवा मन्दिर (जैन दर्शन शोध संस्थान) द्वारा प्रकाशित शोध त्रैमासिकी “अनेकान्त” पत्रिका के परामर्शदाता एवं पूर्व सम्पादक श्री प. पदमचन्द्र शास्त्री का । जनवरी 2007 को अचानक स्वर्गवास का समाचार सुनकर मैं हतप्रभ हो गया और विचलित भी। अभी 24 दिसम्बर को एक सप्ताह पूर्व ही उनसे मुलाकात हुई थी। वे कुछ अस्वस्थता तो महसूस कर रहे थे, पर ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगता था कि हम उनकी छत्रछाया से वंचित होने वाले हैं। वैसे तो पण्डित जी से मंग परिचय 1979 ई. से है, परन्तु उनके आदेश से 7 वर्ष से “अनेकान्त" के सम्पादन से जुड़ने पर मुझे पण्डित जी को करीब से सनने-समझने का सुयोग मिला। इसे मै अपना अहोभाग्य मानता हूँ कि पं. पद्यचन्द्र शास्त्री सदृश दीपशिखा से मुझे भी किञ्चित् आलोक मिला। कदाचित् 24 दिसम्बर की बातचीत को अब स्मरण करने से मुझे ऐसा लगता है कि पं. जी सा को यह आभास हो गया था कि वे अब जैनागम की सेवा नहीं कर पायेंगे। पर अस्वस्थ होने पर भी उनके चेहरे पर गजब का सन्तोष था तथा वे बार-बार वीर सेवा मन्दिर के पदाधिकारियों की प्रशसा करते हए कह रहे थे कि चलो जैन समाज में एकाध सस्था ऐसी भी है, जो सेवानिवृत्ति के पश्चात् भी राजकीय पेंशन की तरह किसी पण्डित को वृत्ति दे रही है। किसी पण्डित के द्वारा परोक्ष में नियोजक संस्था की ऐसी प्रशंसा मैंने प्रथम बार सुनी थी। उन्होंने मुझे आदेश भी दिया था कि अगले अंक के सम्पादकीय में यह अवश्य लिखना कि अन्य जैन संस्थाओं को इस सन्दर्भ में वीर सेवा मन्दिर का अनुकरण करना चाहिए।
अभी एक माह पूर्व ही पण्डित जी के 33 आलेखो का संकलन "निष्कप दीप शिखा” के नाम से वीर सेवा मन्दिर से प्रकाशित हुआ है।