Book Title: Anekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 256
________________ अनेकान्त 59/3-4 119 जाती है। वास्तव में ब्रह्मचर्य की साधना वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही जीवनों के लिए एक उपयोगी कला है। यह आचार-विचार और व्यवहार को बदलने की साधना है। आचरण का पतन जीवन का पतन है और आचरण की उच्चता जीवन की उच्चता है। यदि रूढिवश किसी व्यक्ति का जन्म नीचकुल में मान भी लिया जाये, तो इतने मात्र से वह अपवित्र नहीं माना जा सकता। पतित वह है जिसका आचार-विचार निकृष्ट है और जो दिन-रात भोग-वासना में डूबा रहता है। जो कृत्रिम विलासिता के साधनों का उपयोग कर अपने सौन्दर्य की कृत्रिमरूप में वृद्धि करना चाहते हैं उनके जीवन में विलासिता तो बढती ही है, कामविकार भी उद्दीप्त होते है, जिसके फलस्वरूप समाज भीतर ही भीतर खोखला होता जाता हैं। ब्रह्मचर्य-साधना के दो रूप सम्भव हैं। वासनाओं पर पूर्ण नियन्त्रण और वासनाओं का केन्द्रीकरण 1 समाज के बीच गाहस्थिक जीवन व्यतीत करते हुए वासनाओं पर पूर्ण नियन्त्रण तो सबके लिए सम्भव नहीं पर उनका केन्द्रीकरण सभी सदस्यों के लिए आवश्यक है। केन्द्रीकरण का अर्थ विवाहित जीवन व्यतीत करते हुए समाज की अन्य स्त्रियों को माता, बहिन, और पुत्री के समान समझकर विश्वव्यापी प्रेम का रूप प्रस्तत करना। यहां यह विशेष रूप से विचारणीय है कि अपनी पत्नी को भी अनियन्त्रित कामाचार का केन्द्र बनाना व्रत से च्युत होना है। एकपत्नीव्रत का आदर्श इसीलिए प्रस्तुत किया गया है कि जो आध्यात्मिक सन्तोष द्वारा अपनी वासना को नहीं जीत सकते वे स्वपत्नी के ही साथ नियन्त्रितरूप से कामरोग को शान्त करें। आध्यात्मिक और शारीरिक स्वास्थ्य की वृद्धि के लिए इच्छाओं पर नियन्त्रण रखना आवश्यक है। सामाजिक और आत्मिक विकास की दृष्टि से ब्रह्मचर्य शब्द का अर्थ ही आत्मा का आचरण है। अतः केवल जननेन्द्रिय सम्बन्धी विषय विकारों का रोकना पूर्ण ब्रह्मचर्य नहीं है। जो अन्य इन्द्रियों के विषयों के अधीन होकर केवल जननेन्द्रिय सम्बन्धी विषयों को रोकने का प्रयत्न करता है, उसका वह प्रयत्न वायु की भांति होता है। कान से विकार की बातें सुनना, नेत्रों

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