Book Title: Anekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

Previous | Next

Page 261
________________ 124 अनेकान्त 59/3-4 को प्राप्त न होने वाले जीवों के आयु बन्ध के नियम में अन्तर है। जिन जीवों की आयु का कदली घात नहीं होता अर्थात् जो निरुपक्रमायुष्क जीव हैं, वे अपनी भुज्यभान आयु में छह माह शेष रहने पर आयुबन्ध के अन्तिम छहमास के अतिरिक्त शेष भुज्यमान आयु परभविक आयुबन्ध के बिना बीत जाती है। एक समय अधिक पूर्वकोटि आदि रूप आगे की सब आयु असंख्यात वर्ष आयु वाले मनुष्य व तिर्यञ्च भोगभूमिया होते हैं। असंख्यात वर्ष की आयुवाले जीवों का कदलीघात मरण नहीं होता क्योकि वे अनपवर्त्य निरुपक्रम आयु वाले होते है। देव नारकी, चरमशरीरी और अंसख्यातवर्षायुष्क (योग-भूमिया) जीवों की आय विषशस्त्र आदि विशेष बाह्य कारणों से ह्रास (कम) नहीं होता इसलिए वे अनपवर्त्य हैं। इनका कारण जन्म से ही व्यवस्थित है किन्तु कर्मभूमिया जीवों का मरण व्यवस्थित नहीं है। क्योंकि जिस कर्म भूमिया मनुष्य या तिर्यंच ने अगले भव की आयु का बन्ध नहीं किया है उसकी आयु का क्षय बाह्य निमित्त से हो सकता है। अकाल मरण में भी आयुकर्म के निषेक अपना फल असमय में देकर झड़ते हैं, बिना फल दिए नहीं जाते हैं। आचार्य अकलंक देव तत्वार्थ सूत्र के द्वितीय अध्याय के 53वें सूत्र की व्याख्या करते हुए कहा है- “आयु उदीरणा में भी कर्म अपना फल देकर ही झड़ते हैं, अतः कृतनाश की आशंका उचित नहीं है। जैसे गीला कपड़ा फैला देने पर जल्दी सूख जाता है। और वही यदि इक्ट्ठा रखा रहे तो सूखने में बहुत समय लगाता है, उसी प्रकार बाह्य निमित्तों से समय से पूर्व आयु के निषेक झड़ जाते हैं यही अकाल मृत्यु है। पण्डित श्री वंशीधर व्याकरणाचार्य इस विषय में कुछ पृथक् कथन करते हैं, उनका कहना है की बध्यमान आयु में उत्कर्षण अपकर्षण होते ही हैं किन्तु भुज्यमान सम्पूर्ण आयुओं में भी उत्कर्षण अपकर्षण करण हो सकते हैं। इसका कारण है कि भुज्यमान तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु की उदीरणा सर्वसम्मत है। भुज्यमान देवायु और नरकायु की उदीरणा भी सिद्धान्त ग्रन्थों में

Loading...

Page Navigation
1 ... 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268