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अनेकान्त 59 / 3-4
खड्ग प्रहार आदि से मरण देखा जाता है। श्री श्रुतसागरसूरि ने तत्वार्थवृत्ति में अकालमरण की मान्यता की पुष्टि में कहा है “अन्यथादयाधर्मोपदेशचिकित्साशास्त्र च व्यर्थं स्यात्" अकालमरण को न मानने से दयाधर्म का उपदेश और चिकित्सा शास्त्र व्यर्थ हो जायेगे भट्टाकलंकदेवने कहा है “बाह्य कारणों के कारण आयु का ह्रास होता है, वह अववर्त है। अववर्त आयु जिनके है, वे अपवर्त आयु वाले हैं और जिनकी आयु का अपवर्त नहीं होता वे अनपवर्त आयु वाले देव नारकी चरम शरीरी और भोग भूमिया जीव हैं, बाह्य कारणों से इनकी आयु का अपवर्त नहीं होता है । शस्त्रादि के बिना संक्लेश परिणामों या परिश्रम आदि के द्वारा भी आयु का ह्रास हो सकता है और वह भी कदलीघात मरण है जैसे किसी की आयु 80 वर्ष है वह 40 वर्ष का हो चुका परिश्रम या संक्लेश के कारण उसकी आयु कर्म के निषेक 75 वर्ष की स्थिति वाले रह गये, वह 75 वर्ष में मरण को प्राप्त होता है । तो वह भी अकालमरण ही कहा जायेगा यदि एक अन्तर्मुहूर्त भी भुज्यमान आयु कम होती है तो वह अकालमरण ही कहलाता हैं । यह निश्चित है कि कोई भी जीव आत्मघात करता है, तो वह भी अकालमरण को प्राप्त होता है किन्तु सभी अपवर्त को प्राप्त होने वाले जान बूझकर अपवर्तन नहीं करते है जैसे आहार निमित्तों से रागादिकरूप स्वयं परिणमन कर जाता है उसी अपवर्तन के सम्बन्ध जानना चाहिए ।
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आगम में यह भी उल्लेख है कि आगामी भव की आयु का बन्ध हो जाने के बाद अकालमरण नहीं होता है। अगले भव की आयु का बन्ध हो जाने के बाद भुज्यमान आयु जिनती शेष रह गई है, उस आयुस्थिति के पूर्ण हो जाने पर ही जीव का मरण होगा उससे पूर्व नहीं होगा । आचार्य वीरसेन इसी बात को कहते हैं- “परभविआइए बद्धे पच्छा भुंजमाणऽअस्स कदलीघादो णत्थिजहासरूवेण चेव वेदेदित्ति" ( धवल पृ. 10 पृ. 237 ) अर्थात् परभवसंबंधी आयु के बंधने पश्चात् भुज्यमान आयु का कदलीघात नहीं होता किन्तु जीव की जितनी आयु थी उतनी का ही वेदन करता है । यह नियम सभी जीवों के साथ लागू होता है किन्तु शास्त्रों में कदलीघात मरण वाले और कदलीघात मरण