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अनेकान्त 59/3-4
हिम अणलसलिल गुरूवर पव्वतस्रूहण पडयणमंगेहिं। रसविज्जोयधराणं अणयपसंयेहि विविहेहिं ॥26॥ भावपाहुड
अर्थात्- विषभक्षण से, वेदना की पीड़ा के निमित्त से रुधिर के क्षय हो जाने से, भय से शस्त्राघात से, संक्लेश परिणाम से आहार तथा श्वास के निरोध से आयु का क्षय हो जाता है। हिमपात से अग्नि से जलने के कारण, जल में डूबने बड़े पर्वत पर चढ़कर गिरने से शरीर का भंग होने से, पारा आदि रस के संयोग (भक्षण) से आयु का व्युच्छेद हो जाता है। __इन कारणों के होने से ही असमय में जीव की मौत होती है यह सत्य है कि यदि सोपक्रमायुष्क अर्थात् संख्यातवर्षायुष्क मनुष्य व तिर्यञ्च को उपर्युक्त कारणों में से एक या अधिक कारण मिल जायेगे तो अकालमरण होगा और उक्त कारणों में कोई भी कारण नहीं जुड़ता है तो अकालमरण नहीं होता है। कारण का कर्म के साथ अन्वय व्यतिरेक अवश्य पाया जाता है। कारण कार्य सम्बन्ध को बताते हए आचार्य कहते हैं- यस्मिन् सत्येव भवतिअसति तु न भवति तत्तस्य कारण मिति न्यायात्" (ध.पु. 12 पृ. 289) जो जिसके होने पर ही होता है और जिसके न होने पर नहीं होता, वह उसका कारण होता है ऐसा न्याय है। आचार्य विद्यानन्दि ने शस्त्र प्रहार आदि बहिरंग कारणों का अपमृत्यु के साथ अन्वय-व्यतिरेक बताया है। इससे सिद्ध है कि खङ्ग प्रहार आदि से जो मरण होगा वह अकालमरण होगा और इन शस्त्र आदि के अभाव में कदलीघात मरण नहीं होगा। भास्करनन्दि आचार्य भी अपनी सुखवोधनाम्नी टीका में लिखते हैं- "विषशस्त्रवेदनादि बाह्यविशेषनिमित्तविशेषणावर्त्य ते स्वीक्रियते इत्यपवर्त्यः" अर्थात विष शस्त्र वेदनादि बाह्य विशेष निमित्तों से आयु का ह्रस्व (कम) करना अपवर्त्य है अर्थात् बाह्य निमित्तों से भुज्यमान आयु की स्थिति कम हो जाती है। इसी सन्दर्भ में आचार्य विद्यानन्दि कहते हैं "नह्यप्राप्तकालस्य मरणाभावः खड्गप्रहारादिमिः मरणस्य दर्शनात् " अप्राप्तकाल अर्थात् जिसका मरण काल नहीं आया ऐसे जीव का भी मरण होता है क्योंकि