Book Title: Anekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

Previous | Next

Page 262
________________ अनेकान्त 59/3-4 बतलायी है- “संकमणा करणूणा णवकरणा होंति सव्व आऊणं" (गो. कर्मकाण्ड गा. 441) अर्थात् एक संक्रमण करण को छोड़कर बाकी के बन्ध, उत्कर्षक, अपकर्षण, उदीरणा, सत्व, उदय, उपशान्त निधत्ति और निकाचना ये नव करण सम्पूर्ण आयुओं में होते हैं। किसी भी कर्म की उदीरणा उसके उदयकाल में ही होती है। कारण उदीरणा का लक्षण "अण्णत्थठियस्सुदये संयुहणमुदीरणा हुँ अत्यि तं" (गो. कर्मका गा न. 439 )उदयावलिबाह्यस्थितस्थितिद्रव्यस्यापकर्षणवशादुदयावल्यां निक्षेपणमुदीरणा खलु। उदयावली के द्रव्य से अधिक स्थिति वाले द्रव्य को अपकर्षण के द्वारा उदयावली में डाल देना उदीरणा है। उदयगतकर्म के वर्तमान समय से लेकर आवली पर्यन्त जितने समय हों उन सबके समूह को उदयावली कहा है। इससे यह निर्णय हुआ कि कर्म की उदीरणा उसके उदयकाल में ही हो सकती है। लब्धिसार में लिखा है। कि “उदयाणमावलिह्मिन च उभयाणं बाहिरम्मि खिवणटुं। गा. 68 अर्थात् उदयावली में उदय गत प्रकृतियों का ही क्षेपण होता है। उदयावली के बाहर उदयगत और अनुदयगत दोनों तरह की प्रकृतियों का क्षेपण होता इससे भी यही सिद्ध होता है कि जिस कर्म का उदय होता हैं उसी का उदयावली बाह्यद्रव्य उदयावली में दिया जा सकता है। इसलिए देवायु और नरकायु की उदीरणा क्रम से देवगति और नरकगति में होगी अन्यत्र नहीं इससे स्पष्ट है कि भुज्यमान देवायु और नरकायु की भी उदीरणा हो सकती है। ऊपर के निषेकों का द्रव्य उदयावली विषं देना देवायु और नरकायु के सम्बन्ध में उदीरणा है न कि बाह्य निमित्त से मरण का नाम उदीरणा है। सर्वज्ञ के उपदेश द्वारा अकालमरण सिद्ध हो जाता हैआयुर्यस्यापि देवः परिनाते हितान्तके। तस्यापि क्षीयते सद्यो निमित्तान्तरयोगतः ॥670 - सार समुच्चय

Loading...

Page Navigation
1 ... 260 261 262 263 264 265 266 267 268