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अनेकान्त 59/3-4
है उसका मूल सम्बन्ध बड़े गुरु तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ और छोटे गुरु तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ की परम्परा से जुड़ा है और जैन संस्कृति में प्रतीक रूप में आज भी विद्यमान है।
इस प्रकार लोक जीवन पर व्यापक प्रभाव डालने वाले तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ के पूर्वभव के सम्बन्ध में शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि धातकी खण्ड के पूर्व विदेह क्षेत्र में में सीता नदी के उत्तर तट पर सुकच्छ नाम का एक देश है। उसके क्षेमपुर नामक नगर में नन्दिषेण नाम का एक राजा राज्य करता था। वह अन्यन्त चतुर और पराक्रमी था। उसने अपने बन्धुओं, मित्रों तथा सेवकों के साथ बहुत समय तक राज्य सुख का अनुभव किया, किन्तु उसे वैराग्य हो गया। अतः उसने धनपति नामक अपने पुत्र को राज्य का भार सौंप दिया और अन्य अनेक राजाओं के साथ मुनिश्री अर्हन्नन्दन के पास जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। पुनः षोडश कारण भावनाओं को भाते हुये उस राजा ने तीर्थङ्कर नामकर्म का बन्ध किया। आयुष्यकर्म के समाप्त होने पर संन्यास पूर्वक मरण करने के कारण उसने मध्यम ग्रैवेयक के सुभद्र नामक मध्यम विमान में अहभिन्द्र के रूप में जन्म लिया। वहाँ वह शुक्ल लेश्या का धारक था। उसकी ऊँचाई दो हाथ और आयु सत्ताइस सागर थी।
इस अवधि में स्वर्ग के समस्त सुख भोगकर अन्त में जब पृथ्वी तल पर अवतीर्ण होने का समय आया तो वे वाराणसी के अधिपति इक्ष्वाकुकुलशिरोमणि महाराजा सुप्रतिष्ठित की महारानी माता पृथिवी सेना की कुक्षि (गभ) में भाद्रपद शुक्ला षष्ठी को आये और ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी के दिन विशाखा नक्षत्र में षष्ठ तीर्थङ्कर भगगवान् पद्मप्रभ के जन्म के दस लाख पूर्व सहित नौ हजार करोड़ सागरोपम के व्यतीत हो जाने पर उनका जन्म हुआ।
नील वर्ण से सुशोभित तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ की आयु चौरासी लाख पूर्व और ऊँचाई दो सौ धनुष थी। उनका -राज्यकाल बीस पूर्वाङ्ग सहित चौदह लाख पूर्व प्रमाण था। उन्हें जब वन लक्ष्मी का विनाश देखकर