Book Title: Anekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 237
________________ 1000 अनेकान्त 59/3-4 को लक्ष्य में रखकर स्तुति के बहाने अध्यात्मरस की वर्षा करते हुये दार्शनिक विषयों का विवेचन दिया है। ये सभी स्तुतियाँ सामान्य हैं किसी तीर्थङ्कर विशेष से सम्बद्ध न होकर मात्र ज्ञानज्योति से सम्बद्ध इस ग्रन्थ में आठवीं स्तुति उपजाति छन्द में है। इसमें आपने स्पष्ट किया है कि कषाय बन्ध का कारण है। इसलिए आपने कषाय-क्षय को ही मुक्ति का कारण माना है। आगे वे कहते हैं कि- हे भगवन् ! आपने अपनी शक्ति का उत्तरोत्तर विकास करते हुये कषायों के ऊपर ऐसा प्रहार किया है कि सभी कषायें स्वतः नष्ट हो गई और केवलज्ञान प्रकट हो गया। ज्ञानपुञ्ज होने के पश्चात् आयुष्य कर्म के शेष रहने के कारण आप उसे भोगने के लिये विवश हो गये, अतः आपने धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया। ___ आचार्य अमृतचन्द्र आगे कहते हैं कि तीर्थ से तीर्थङ्कर और तीर्थङ्कर से तीर्थ का प्रवर्तन होने के कारण आप बीजाङ्कर न्याय से कार्यकारण भाव रूप हैं। सर्वज्ञ होकर भी शब्दों की अशक्ति के कारण आपने समस्त पदार्थो का अनन्तवाँ भाग ही कहा है। आपके शब्द स्याद्वादरूप मुद्रा से युक्त हैं। सापेक्ष दृष्टि से विश्व एकरूप भी है और अनेक रूप भी है। जिस प्रकार पयोरसज्ञ बिलाव अग्नि से तप्त दुग्ध को पीते हुये महादुःख के भार को सुख रूप समझता है, उसी प्रकार समतारूप रस के ज्ञाता मुनियों को महादःखरूप भार सुखरूप ही प्रतीत होता है। शब्दरूप ब्रह्म आपके केवल ज्ञान रूप मण्डप के एक कोने का चुम्बन करता हुआ प्रतीत होता है, अतः लोक में आप ही एक परम ब्रह्म हैं। श्री चतुर्विंशति सन्धान महाकाव्य- यह कृति महाकवि पण्डित जगन्नाथ (वि.सं. 1729 के आसपास) की है। इसमें संस्कृत भाषा में निबद्ध एक मात्र पद्य है। जो पच्चीस बार लिखा गया है। इसमें चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति की गई है। इसकी विशेषता यह है कि इस एक पद्य के ही भिन्न-भिन्न अर्थ करने पर कुल पच्चीस अर्थ निकलते हैं। प्रथम अर्थ में समुच्चय रूप से चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति रूप अर्थ निकलता

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