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ब्रह्मचर्यदर्शन और उसकी सामाजिक उपयोगिता
- डॉ. अशोककुमार जैन व्यक्ति को निराकुल और शुद्ध बनाने के लिए भगवान महावीर ने अहिंसा, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पर बहुत बल दिया और बताया कि जब तक मनुष्य प्राणिमात्र के साथ आत्मतुल्यता की भावना नहीं बनाता, सब प्राणियों को अपने ही समान जीने का अधिकार नहीं मानता तब तक उसके मन में सर्वोदयी अहिंसा का विकास नहीं हो सकता। वासनाओं पर विजय पाना ही सच्ची शुद्धि है और उसकी कसौटी है ब्रह्मचर्य की पूर्णता। भगवती आराधना में लिखा है
जीवो बंभा जीवम्मि चेव चरिया हविज्ज जा जदिणो।
तं जाण बंमचेरं विमुक्कपरदेहतित्तिस्स। -गाथा 878 ब्रह्म में रमण करना ब्रह्मचर्य है। ब्रह्म शब्द का अर्थ जीव है अर्थात ज्ञान-दर्शन रूप से जो वृद्धि को प्राप्त हो वह ब्रह्म है। जीव ही इन गुणों से वर्धमान होता है इसलिए यह जीव-आत्मा ही ब्रह्मस्वरूप है। ब्रह्म का अर्थ व्यापी भी होता है। समुद्घातावस्था में जीव-आत्मा ही तीन लोक में व्याप्त होता है अतः आत्मा ही ब्रह्म है। चर्य-चरण रमण करना अर्थात् अपने ही स्वभाव-ज्ञान दर्शनरूप आत्मा में रमण करना। मूलाचार में लिखा है
मादुसुदामगिणीय दणित्यित्तिय च पडिरूवं। .
इत्थिकहादिणियत्ती तिलोयपुज्ज हवे बमं ।। गाथा 8 तीन प्रकार की स्त्रियों को और उनके प्रतिरूप (चित्र) को माता, पुत्री और बहिन के समान देखकर जो स्त्रीकथा आदि से निवृत्ति है वह तीन लोक में पूज्य ब्रह्मचर्य व्रत कहलाता है। पद्मनन्दि पञ्चविंशतिका में भी बताया है
आत्मा ब्रह्म विविक्तबोधनिलयो यत्तत्र चर्या परं। स्वाङ्गसंगविवर्जितैकमनसस्तद् ब्रह्मचर्य मुनेः।।