Book Title: Anekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 252
________________ अनेकान्त 59/3-4 115 सम्यग्दृष्टिज्ञानी विरतितपोध्यानभावनायोगैः। शीलाङ्गसहस्त्राष्टाशकमयत्नेन साधयति॥ 245 धर्म, पृथ्वीकाय बगैरह, इन्द्रियां, संज्ञा, कृत, कारित, अनुमोदना और मन, वचन, काय के मेल से शील के अठारह हजार अंगों की उत्पत्ति होती ब्रह्मचर्य से मानव का जीवन तेजयुक्त एवं प्रभावी बनता है नैतिक समाज की स्थापना में इस व्रत की महत्वपूर्ण भूमिका है। ब्रह्मचर्य की साधना करने वाला साधक शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की शक्तियों को सुरक्षित रखता है। भाव पाहुड़ में दसविध अब्रह्म का त्याग कर नवविध ब्रह्मचर्य पालन के सम्बन्ध में लिखा है णवविहबंमं पयडहि अबमं दसविहं पमोत्तूण। मेहुणसण्णसत्तो ममिओसि भवण्णवे भीमे॥ भावपाहुड़ 96 हे आत्मन् ! दस प्रकार के अब्रह्म का त्याग कर नवविध ब्रह्मचर्य भाव को प्रकट कर । क्यों कि तू मैथुनभाव में आसक्त होकर भयकारक संसार समुद्र में भ्रमण कर रहा है। जैसे खेत में स्थित धान्य की रक्षा के लिए बाड़ लगाई जाती है उसी प्रकार ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा के लिए शील की नौ बाड़ है वे इस प्रकार है1. स्त्री विषयक अभिलाषा न करना- क्योंकि अभिलाषा के बाद ही कुकार्य की परिणति होती है। अतः कुभावना की जड़ का नाश करने के लिए स्त्री विषय सम्बन्धी अभिलाषा का त्याग करना आवश्यक है। 2. अंग विमोक्ष- काम के साधनभूत अंगो को उत्तेजित न करना। 3. गरिष्ठ कामोत्पादक रसों के सेवन का त्याग- जिह्वा इन्द्रिय के स्वच्छन्द होने पर सारी इन्द्रियां स्वच्छन्द होती है। 4. संमक्तद्रव्य सेवात्याग- स्त्रियों के द्वारा सेवित सम्बन्धित वस्त्र, चटाई, __ चौकी आदि का अपने लिए प्रयोग नहीं करना।

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