Book Title: Anekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 249
________________ 112 अनेकान्त 59 / 3-4 क्षारमम्बु तथा पीत्वा तृष्यत्यतितरां नरः । तथा विषयसंभोगैः पर संतर्षमृच्छति ।। महापुराण 11 / 165 जैसे चित्त को मोहित करने से शरीर को शिथिल बनाने से, तृष्णा (प्यास) को बढाने से और सन्तापकारक होने से ज्वर सुख रूप नहीं है वैसे ही स्त्री-संभोग भी सुखरूप नहीं है तथा जैसे खारे जल को पीने से मनुष्य की प्यास बढती है वैसे ही विषय सम्भोग से परम तृष्णा सताती है । महर्षि पतञ्जलि ने 'योगदर्शन' में ब्रह्मचर्य के महत्व का प्रतिपादन करते हुए बताया है ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः । ब्रह्मचर्य की पूर्ण साधना करने पर अपूर्व मानसिक शक्ति और बल प्राप्त होता है । बौद्ध परम्परा में ब्रह्मचर्य का महत्व स्वीकार किया गया है धम्मपद में लिखा है चन्दनं तगरं वापि उप्पलं अथ वस्सिको । एतेसं गंधजातानं सीलगंधो अनुत्तरो ।। 4/12 अगरु और चन्दन की सुगंध फैलती है, वह सुगन्ध तो बहुत ही अल्प मात्रा में होती है पर ब्रह्मचर्य ( शील) की ऐसी सुगन्ध है जो देवताओ के दिल को भी लुभा देती है । वह सुगन्ध इतनी व्यापक होती है कि मानव लोक में तो क्या देवलोक में भी व्याप्त हो जाती है । विशुद्धिमग्ग में लिखा है सीलगंधसमो गंधो कुतो नाम भविस्सति यां समं अनुवातं च परिवाते च वायति ।। सम्माराहण सोपानं अं सील समंकुतो । द्वारं वा पन निव्वान नगस्स पवेसने । । परिच्छेद । शील की गंध के समान दूसरी गंध कहां होगी ? दूसरी गंध तो जिधर हवा का रुख होता है उधर ही बहती है पर शील की गंध ऐसी गंध है जो विपरीत हवा में भी उसी तरह से बहती है जैसी प्रवाह में बहती है । उसमें यह भी कहा है कि यदि किसी को स्वर्ग के उच्च स्थल पर पहुचना

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