Book Title: Anekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 236
________________ अनेकान्त 59/3-4 है, जिनमें कहा गया है कि-अविनाशी स्वरूप में लीन होना जीव का प्रयोजन है, क्षणभंगुर भोगों में नही। भोगाकांक्षा से ताप की शान्ति नहीं होती है। जिस प्रकार गतिशील मनुष्य के द्वारा चलाया जाने वाला यन्त्र गति रहित होता है, उसी प्रकार जीव के द्वारा धारण किया गया शरीर गति रहित है। यह शरीर दुर्गन्ध युक्त एवं विनाशशील है, अतः इससे अनुराग करना उचित नहीं है। अशुभ कर्मों के फलस्वरूप भवितव्यता को कोई टाल नहीं सकता है। अहङ्कार के वशीभूत संसारी प्राणी अनेक कारणों को मिलाकर भी सुख-दुःखादि कार्यों को करने में असमर्थ है। जीव मृत्यु से डरता है, किन्तु उससे छुटकारा नहीं है। व्यक्ति मोक्ष चाहता है, किन्तु उसकी प्राप्ति नहीं होती है। फिर भी भय और काम के वशीभूत हुआ अज्ञानी जीव व्यर्थ दुःखी होता है। हे सुपार्श्वनाथ भगवान आप सभी तत्त्वों के ज्ञाता हैं और माता की तरह अज्ञानियों के हितसाधक हैं। सम्यग्दर्शनादि गुणों के अन्वेषक जनों के आप नेता हैं। अतः आज मैं भी भक्तिपूर्वक आपकी वन्दना करता हूँ। स्तुतिविद्या- इसका अपरनाम जिनशतक भी है। यह आचार्य समन्तभद्र की कृति है। इसमें उन्होंने ऋषभादि चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति अलंकृत भाषा में की है। सातवें क्रम में तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ की मात्र एक पद्य में स्तुति की है। इसमें वे कहते हैं कि हे सुपार्श्वनाथ भगवन्! आप स्तुति करने वाले और निन्दा करने वाले के विषय में समान हैं। सबको पवित्र करने वाले हैं। आप अकेले होते हुये भी नेता की तरह सबके द्वारा सेवनीय हैं स्तुवाने कोपने चैव समानो पन्न पावकः। भवानेकोपि नेतेव त्वमाश्रेयः सुपार्श्वकः।। लघुतत्त्वस्फोट- इसका अपर नाम शक्तिमणित कोश भी है। यह आचार्य अमृतचन्द्रसूरि द्वारा लिखित एक स्तुतिपरक ग्रन्थ है। इसमें आचार्यश्री ने विविध पच्चीस विषयों का पच्चीस-पच्चीस पद्यों में विवेचन किया है। प्रथम पञ्चविंशतिका में समुच्चय रूप से चौबीस तीर्थङ्कर की स्तुति की गई है। पुनः आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने तीर्थङ्करों

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