Book Title: Anekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 238
________________ अनेकान्त 59/3-4 __101 है। तदनन्तर ऋषभादि से लेकर महावीर पर्यन्त क्रमशः प्रत्येक तीर्थङ्कर का स्तुति परक अर्थ निकलता है। सातवें क्रम में उसी एक पद्य का अर्थ महाकवि जगन्नाथ ने अपनी स्वोपज्ञ टीका में भगवान् सुपार्श्वनाथ का स्तुतिपरक अर्थ निकाला है। स्रग्धरा छन्द में लिखा गया वह पद्य इस प्रकार हैश्रेयान् श्रीवासुपूज्यो, वृषभजिनपतिः श्रीदुमावोयधर्मों। हर्यतःपुष्पदन्तो, मुनिसुव्रतजिनोऽनन्तवाक श्रीसुपावः। शान्ति पद्मप्रभोरो, विमलविभुरसौ वर्धमानोऽप्यजातो, मल्लिर्नेमिनमिमा सुमतिरवतु सच्छीजगन्नाथधीरम्॥7॥16क सुपार्श्वनाथ स्तोत्र- जिनरतनकोश में संस्कृत भाषा में रचित एक सुपार्श्वनाथ स्तोत्र का उल्लेख है।6ख चौबीसी- तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य श्रीमज्जयाचार्य ने वि.स. 1900 में राजस्थानी भाषा में एक चौबीसी की रचना की थी। यह रचना अत्यन्त भावपूर्ण है। इममें उन्होंने ऋषभादि चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति की है। 17 पद्यों की प्रस्तावना के साथ प्रत्येक तीर्थङ्कर की स्तुति सात-सात पद्यों में है। सातवें क्रम में श्रीमज्जयाचार्य भगवान सुपार्श्वनाथ की स्तुति करते हुये कहते हैं कि- प्रतिदिन सुपार्श्व स्वामी का भजन करे। देव और मनुष्य अपकी सेवा करते हैं। आपके प्रतिबोधन से लोग उदासीन हो जाते हैं। चक्रवर्ती की खीर और क्षीर समुद्र का नीर - दोनों अत्यधिक मधुर होते हैं, किन्तु आपकी वाणी में उससे भी अधिक मिठास है। हे प्रभो। तुम दीन दयाल हो और अशरणों के शरण हो। मैं तुम्हारा दास हूँ। तुम मेरी अभिलाषा पूर्ण करो।" पूजा सहित्य : पूजा के माध्यम से व्यक्ति अपनी भावनाओं को वैसे ही व्यक्त करता है जैसे स्तोत्र अथवा स्तुति के माध्यम से करता है। अन्तर मात्र इतना है कि पूजा के साथ द्रव्य भी समर्पण किया जाता है। और

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