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अनेकान्त 59 / 3-4
वैराग्य उत्पन्न हुआ तो वे ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी के दिन पूर्वाह्न में विशाखा नक्षत्र में मनोमति नाम की पालकी में आरूढ होकर सहेतुक वन गये और तृतीय उपवास के साथ काशी में जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। आपके साथ एक हजार राजकुमारों ने भी दीक्षा ग्रहण की थी । दीक्षित होने के पश्चात् वे चर्या के लिये सर्वप्रथम सामखेट नामक नगर गये । वे छद्मस्थ अवस्था में नौ वर्ष तक मौन रहे। कुछ समय पश्चात् फाल्गुन कृष्णा षष्ठी को उन्हें केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई ।
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केवली अवस्था में वे बल आदि पच्चानवे गणधरों से घिरे रहते थे तथा दो हजार तीस पूर्वधारियों के अधिपति थे। दो लाख चबालीस हजार नौ सौ बीस शिक्षक उनके साथ रहते थे। नौ हजार अवधिज्ञानी उनकी सेवा करते थे । ग्यारह हजार केवलज्ञानी उनके सहगामी थे । पन्द्रह हजार तीन सौ विक्रियाऋद्धि के धारक उनकी पूजा करते थे। नौ हजार एक सौ पचास मन:पर्ययज्ञानी उनके साथ रहते थे । और आठ हजार छह सौ वादी उनकी वन्दना करते थे इस प्रकार सब मिलाकर वे तीन लाख मुनियों के स्वामी थे । मीनार्या आदि तीन लाख श्रावक और पाँच लाख श्राविकाएँ उनकी पूजा करती थीं। इस प्रकार वे विहार करते हुये उन्होंने एक लाख पूर्व 20 पूर्वाङ्ग 9 वर्ष तक धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया ।"
जब आयु एक माह शेष रह गया तब तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ श्रीविहार बन्दकर सम्मेद शिखर पहुॅचे। वहाँ एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमा योग धारण किया और फाल्गुन कृष्णा सप्तमी के दिन विशाखा नक्षत्र में सूर्योदय के समय प्रभास कूट से मुक्ति प्राप्त की । तत्पश्चात् पुण्यवान् कल्पवासी उत्तम देवों ने तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ का मोक्ष कल्याणक मनाया ।'
मोक्षगमन के पश्चात् तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ की निर्वाण स्थली प्रभास कूट से 49 कोड़ाकोड़ी, 84 करोड़, 72 लाख 7 हजार 742 मुनिराजों ने क्षपकश्रेणी का अवलम्बन लेकर घातिया कर्मों का भी क्षय कर प्रभास कूट से निर्वाण प्राप्त किया ।