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अनेकान्त 59 / 3-4
कही गयी है । (तत्वानुशासन श्लोक 95 ) । इन्द्रियों को जीतने में मन समर्थ है, अतः मन को ही ज्ञान-वैराग्य भावपूर्वक अपने वश में करना चाहिये । मनोयोग पूर्वक नमस्कार मंत्र एवं स्वाध्याय से ध्यान का अभ्यास होता है और ध्यान से स्वाध्याय में शुद्धि होती है जिससे परमात्मा प्रकाशित होता है । ( तत्वा. 80-81 )
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धर्म्य ध्यान के दो भेद हैं - निश्चय धर्म ध्यान और व्यवहार धर्म ध्यान । अनंतानुबंधी प्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण कषाय और प्रमाद के अभाव में निश्चय धर्म्य ध्यान क्रमशः चौथे से सातवें गुणस्थान तक के भव्य जीवों को होता है । व्यवहार धर्म ध्यान अभव्य मिथ्यादृष्टि भी करता है । इस प्रकार धर्मध्यान के प्रमुख अधिकारी अप्रमत संयत ( 9वॉ गुणस्थान) और गौण रूप से प्रमत्त संयत (छठवाँ गुण स्थान ) के भव्य जीव हैं । यह असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानों के जीवों को भी दर्शन पूर्वक होता है। ध्याता की दृष्टि से यह तीन प्रकार का है- जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । ध्यान के फल की सिद्धि लेश्या ( आत्म परिणामों) की विशुद्धि के अनुसार कही गयी है। शुभोपयोग रूप धर्म्य ध्यान स्वर्ग सुख और परम्परा से मोक्ष का कारण है ।
आचार्य कुन्दकुद के अनुसार भरतक्षेत्र में पंचम काल में आत्म ध्यान में स्थित मुनियों को धर्म ध्यान होता है (मोक्ष पा. 76 ) अस्तु मुनिराजों को शक्ति अनुसार यथाख्यात चारित्र से अतिरिक्त चारित्रों का आचरण करना चाहिये ( तत्वानुशासन, 86 ) ।
वृक्ष, कोटर, जीर्ण उद्यान, श्मशान, गुफा, सिद्धकूट, जिनालय, कोलाहल रहित स्थल गृह आदि में ध्यान करना चाहिये। सिद्धक्षेत्र महातीर्थ आदि में ध्यान की सिद्धि होती है। काष्ठफलक, शिला या भूमिपर पर्यक अर्द्धपर्यंक, वज्रासन, वीरासन, सुखासन, कमलासन अथवा कायोत्सर्ग से स्थित होकर पूर्व या उत्तर दिशा में भावपूर्वक ध्यान करना चाहिये । राग द्वेष मोह विहीन समता भाव से किया गया धर्म ध्यान श्रेष्ठ होता है ।