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अनेकान्त 59 / 3-4
उपलब्धि से कर्मो का आगमन रुकता
संवर होता है शुद्धोपयोग रूप
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आत्म ध्यान से कमो
की निर्जरा होती है। आगमिक दृष्टि से कर्मो का संवर और निर्जरा होती है । यही मोक्ष का कारण है। प्रशस्तध्यान दो प्रकार का है- धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान । सूत्रकार के अनुसार गुप्ति समिति, धर्म अनुपेक्षा परिषहजय और चारित्र से संवर होता है ( तत्वा. 9 / 2 ) ! तप के द्वारा निर्जरा और संवर होता है ( तत्वा. 9 / 3 ) यह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चरित्र की एकता पूर्वक ही होता है ।
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परम्परामोक्ष का कारण धर्म ध्यान
'धर्मादनपेतं धर्म्यम्' अर्थात धर्म से युक्त ध्यान धर्म्य ध्यान है । 'वत्थु सहावो धम्मो' के अनुसार वस्तु का स्वभाव ही धर्म है और उसका ध्यान धर्म्य ध्यान हे। इस दृष्टि से वस्तु स्वरूप से युक्त जो ज्ञान है, उसे धर्म ध्यान कहते है । त्रिरत्न को धर्म कहते हैं अतः उस धर्म से युक्त जो चिंतन है वह धर्म्य ध्यान है । मोह एवं क्षोभ से रहित जो आत्मा का परिणाम है, वह धर्म है। इस धर्म से उत्पन्न जो ध्यान हे वह धर्म्य ध्यान है उत्तम क्षमादि दश प्रकार का धर्म कहा है, उससे सम्पन्न होने वाला जो ध्यान हे वह धर्म्य ध्यान है ।
धर्म्य ध्यान चार प्रकार का है- 1. आज्ञाविचय- वीतराग भगवान द्वारा कहे आगम के अभ्यास से पदार्थो का निश्चय करना 2. अपाय विचय मिथ्यात्वादि / कुदेवादिक के सेन से बचने के उपाय का चिंतन करना 3. विपाक विचय- कर्मोदय जन्म शुभ अशुभ भावों से भिन्न ज्ञायक आत्मा का चिंतन करना तथा 4. संस्थान विचय छह द्रव्यों एवं तीन लोक का चिंतन करना । विषय की दृष्टि से धर्म ध्यान पिण्डस्थ, परस्थ, रूपस्थ और रूपातीत के रूप में भी वर्गीकृत किया गया हैं जिसका वर्णन ज्ञानार्णव में किया है।
समस्त परिग्रह के त्याग, कषायों के दमन, व्रतों के धारण तथा मन और इन्द्रियों की विजय पूर्वक ध्यान होने से, यह सब ध्यान की सामग्री