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अनेकान्त 59 / 3-4
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हो तब वह ध्यान हो जाता है। एक पदार्थ को जानते हुए चिंतवन रूक जाना (ज्ञान में ठहर जाना) ही ध्यान है । आचार्य रामसिंह के अनुसार स्थिर मन और स्थिर तात्विक श्रुत ज्ञान का नाम भी ध्यान है ( तत्वानुशासन, 68 ) जिस प्रकार नमक जल में विलीन हो जाता है उसी प्रकार चित्त शुद्धात्मा में विलीन हो जावे तब जीव समरसरूप समाधिमय हो जा जाता है (दोहा पा. 207 ) !
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ध्यान के भेद
ध्यान के चार भेद हैं- आर्त्त ध्यान, रौद्र ध्यान, धर्म्य ध्यान और शुक्ल ध्यान । आर्त और रौद्र ध्यान अप्रशस्त ध्यान हैं । पाप के कारण भूत हैं और धर्म ध्यान और शुक्लध्यान कर्म दहन करने की सामर्थ्य से युक्त होने के कारण प्रशस्त कहलाते हैं ये मोक्ष के कारण हैं ।
ध्यान भाव या परिणामों का अनुगमन करता है और उसी अनुसार तन्मयता होती है । इस दृष्टि से परिणाम तीन प्रकार के होते हैं शुद्ध विशुद्ध और संक्लेश परिणाम । आचार्य कुदकुन्द के अनुसार वीतराग चारित्र रूप धर्म से परिणत आत्मा स्वयं धर्मरूप होता है। जब वह जीव
शुभ अथवा अशुभ परिणामों रूप परिणमता है तब स्वयं शुभ और अशुभ और होता है और जब शुद्ध रूप परिणमन करता है तब स्वयं शुद्ध होता है ( प्रवचनसार गा. 8-9 ) ! उक्त चार ध्यानों में आर्त और रौद्र ध्यान संक्लेश परिणामों से होता है धर्म्य और शुक्ल ध्यान क्रमशः विशुद्ध परिणामों से होता है । इस प्रकार ध्यान का आधार परिणाम है ।
अप्रशस्त ध्यान : संसार भ्रमण का कारण
आर्त्तध्यान : ऋतमर्दनमार्तिर्वातत्र भवमार्त्तम् अर्थात् ऋत, दुख और अर्दन को आर्ति कहते हैं। अर्ति से होने वाला ध्यान आर्त्त ध्यान है । यह चार प्रकार का है- अनिष्ट पदार्थों का संयोग, इष्ट पदार्थो का