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अनेकान्त 59 / 3-4
(2) द्रव्य कषाय विवेक के दो भेद हैं- (i) शरीर से और (ii) वचन
से ।
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क्रोध के वशीभूत होकर आँखों का लाल होना, ओठ काटना शस्त्र उठाना आदि काय व्यापार न करना काय द्रव्य कषाय विवेक है। मान माया और लोभ के वशीभूत होकर काय - व्यापार न करना । वचनों से ऐसा नहीं बोलना कि मैं मारता हूँ, ताड़न करता हॅू इत्यादि वचन क्रोध कषाय विवेक है। दूसरे के द्वारा किये गये तिरस्कार अपमान या निंदा आदि के निमित्त से चित्त में मलिनता का न होना भाव से क्रोध विवेक है ।
मान कषाय विवेक काय की अपेक्षा सिर को ऊँचा करना, उच्चासन पर बिना कहे बैठना आदि है तथा वचन की अपेक्षा से ऐसा बोलना कि मुझ से बड़ा कौन शास्त्र का ज्ञाता है कौन तपस्वी या चारित्रवान है आदि वचन न बोलना वचन मान कषाय विवेक है। प्रकार इनसे मैं उत्कृष्ट हूँ ऐसा मन में अहंकार करना भाव-मान कषाय हैं और उसका नहीं होना भाव मान कषाय विवेक है । माया जन्य उपदेश का त्याग करना वचन माया विवेक है। लोभ कषाय विवेक भी दो प्रकार होता है। किसी वस्तु को लोभ वश चाहने हेतु हाथ पसारना सिर हिलाकर चाहने के लिए स्वीकृत करना आदि काय व्यापार न करना काय लोभ विवेक है । यह वस्तु या ग्राम इत्यादि का मैं स्वामी हूँ ऐसा वचन चच्चारण न करना अथवा ने मैं किसी का स्वामी हूँ न कुछ मेरा है ऐसा बोलना वचन लोभ विवेक है । यह मेरा है इस भाव रूप मोह जन्य परिणाम का न होना भाव लोभ विवेक है। प्रकारान्तर से पाँच प्रकार के विवेक इस प्रकार हैं
अहवा सरीरसेज्जा संथारु वहीण भत्तपाणस्स । वेज्जावच्चकराण य होइ विवेगो तहा चेव ॥ भ.आ. 171 ॥
(1) शरीर या देह विवेक (2) वसति विवेक संस्तर विवेक (3) उपधि विवेक (4) भक्तपान विवेक तथा (5) वैयावृत्य करने वालों का विवेक