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अनेकान्त 59/3-4
पाँचवे तथा अवर्सिणी के दूसरे काल में मध्यम भोगभूमि की व्यवस्था पाई जाती है। सुषमा-दुषमा नामक उत्सर्पिणी के चौथे तथा अवसर्पिणी के तीसरे काल में जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था पाई जाती है। शेष कालों में कर्मभूमि रहती है।
उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी रूप से कालचक्र का घुमाव भरत एवं ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्डों में ही पाया जाता है, अन्यत्र नहीं। विदेह क्षेत्र में देवकुरु एवं उत्तरकुरु में सुषमा-सुषमा काल तथा क्षेत्र में दुषमा-सुषमा काल पाया जाता है।
उत्तम भोग भूमि की अवस्थिति
उत्तम भोगभूमि (सुषमा-सुषमा काल) में भूमि रज, धूम, दाह एवं हिम से रहित, साफ-सुथरी, ओलावृष्टि एवं बिच्छू आदि कीड़ों के उपसर्ग से रहित, निर्मल दर्पण के समान, निंद्य पदार्थो से रहित, तन-मन एवं नयनों को सुखदायक होती है। उस पर चतुरंगल ऊँचे तृण, विचित्र वर्ण वाले वृक्ष, कमलादि से पूर्ण किन्तु मकरादि से रहित पुष्करिणी और वापिकायें होती है। उत्तम भोगभूमि में विकलेन्द्रिय जीव नहीं होते हैं, असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव भी नहीं होते हैं। स्त्री-पुरुषों में किसी भी प्रकार की वेदना नहीं होती है। वे चौथे दिन बेर के बराबर आहार ग्रहण करते हैं। स्त्री-पुरुषों के शरीर की ऊँचाई छःहजार धनुष, आयु तीन पल्य होती है। प्रत्येक स्त्री-पुरुष के पृष्ठ भाग में 256 हड्डियाँ होती हैं। नर-नारी के अतिरिक्त अन्य कोई परिवार नहीं होता है। एक व्यक्ति में नौ हजार हाथियों के बराबर बल होता है। इनका भोग चक्रवर्ती के भोग से अनन्तगुणा होता है। इनका संहनन वज्रवृषभनाराच और संस्थान समचतुरस्र होता है। स्त्री का मरण जम्हाई से तथा पुरुष का मरण छींक से हो जाता है। इनका कदलीघात मरण नहीं होता है। उत्तम भोगभूमि में वे जीव उत्पन्न होते हैं जो मिथ्यात्वसहित होने पर भी मन्दकषायी, जिनपूजक, संयमी एवं आहारदान आदि गुणों के धारक होते हैं। पूर्व में