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अनेकान्त 59 / 3-4
( 9 / 1 ) । 'स
'आस्रवनिरोधः संवरः ' - आनव का निरोध संवर है गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्र :- गुप्ति समिति, धर्म अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र से संवर होता है ( 9 / 2 ) । 'तपसा निर्जरा च'- तप के द्वारा निर्जरा और संवर होता है ( 9 / 13 ) ।
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तप का स्वरूप और भेद
'कर्मक्षयार्थ तप्यत इति तपः' कर्मो का क्षय करने के लिये तपा जाता है वह तप कहा जाता है- तत्वार्थराजवार्तिक ( 9 / 6 / 17 ) । त्रिरत्न को प्राप्त करने हेतु इच्छा निरोध को तप कहते हैं (धवला 13/5-4-26/54-12) समस्त रागादि पर भावों की इच्छा के त्याग द्वारा स्वस्वरूप में प्रतपन करना - विजयन करना तप है ( प्रवचन सार गा. 14 टीका) । जो आत्मा को आत्मा में आत्मा से धारण कर रखता है वह अध्यात्म से तप है । इस प्रकार इच्छाओं के निरोध रूप शुद्धोपयोगीरूपी वीतराग भाव ही सच्चा तप है । तप के दो भेद हैं- बाह्य तप और आभ्यंतर तप । बाह्य तप भी छह प्रकार का है- (1) अनशन (2) अवमौदर्य ( 3 ) वृत्ति परिसंख्यान ( 4 ) रस परित्याग ( 5 ) विविक्त शय्यासन और (6) काय क्लेश इसी प्रकार आभ्यंतर तप भी छह प्रकार का है(1) प्रायश्चित्त (2) विनय ( 3 ) वैयावृत्य (4) स्वाध्याय (5) व्युत्सर्ग-त्याग और ( 6 ) ध्यान । इस प्रकार तप बारह प्रकार के होते हैं । तप आत्म दर्शन रूप सम्यक्त्व सहित होते हैं। सम्यक्त्व बिना करोड़ों वर्ष तक उग्र तप तपने पर भी बोधि की प्रप्ति नहीं होती है। ( दर्शनपाहुड़ 5 मू. आ. 100) ! इसमें बाह्य तप साधन हैं और आभ्यंतर तप साध्य है ।
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बाह्य तप
लौकिक सुख एवं मंत्रसाधनादि दृष्ट फल की अपेक्षा बिना संयम की सिद्धि इन्द्रिय विषय सम्बन्धी राग के उच्छेद, ध्यान की सिद्धि और