Book Title: Anekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 216
________________ अनेकान्त 59 / 3-4 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि भोगभूमिज में उत्पन्न हुए जीवों के अणुव्रतों का ग्रहण नहीं बन सकता है । चारित्र ग्रहण न कर जाने का उल्लेख करते हुए श्री यतिवृषभाचार्य ने लिखा है 'ते सव्वे वरजुगला अण्णोष्णुप्पण्णवेमसंगूढा । जम्हा तम्हा तेसुं सावयवद संजमो णत्थि || 16 79 अर्थात् वे सब भोगभूमिज उत्तम युगल पारस्परिक प्रेम में अत्यन्त मुग्ध रहते हैं । अत एव उनके श्रावक के व्रत और संयम नही होता है । भट्ट अकलंक देव का भी कथन है कि भोगभूमियों में यद्यपि ज्ञान एवं दर्शन तो होता है, परन्तु भोगपरिणामी होने से उनके चारित्र नही होता है।" यहाॅ यह विशेष ध्यातव्य है कि यद्यपि भोगभूमियों में संयतासंयत एवं संयत तिर्यच या मनुष्य नही होते हैं, तथापि पूर्व बैर के कारण देवों द्वारा वहाँ ले जाकर डाले गये ऐसे तिर्यंच या मनुष्य संभव हैं । 18 भोगभूमियों की संख्या देवकुरु, उत्तरकुरू, हैमवत, हरि, रम्यक और हैरण्यवत ये छ: भोगभूमियाँ हैं । पाँच मेरु सम्बन्धी होने से इनकी संख्या तीस (5X6 30) हो जाती है F = अन्तद्वीपज कुभोगभूमियों की संख्या छ्यानवे है । लवण समुन्द्र के अन्दर एवं बाहर तथा कालोदधि समुद्र के अन्दर एवं बाहर भाग में 24-24 (24×4 96) कुभोगभूमियाँ हैं । = सन्दर्भ : (1) तिलोयपण्पत्ती, 1 / 136-138 (2) 'भरत हैमवतहरिविदेहरम्यकहैरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि । तद्विभाजिनः पूर्वापरायता

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