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अनेकान्त 59/3-4
संकुल समय में, अथवा नक्षत्रों के समुदाय से व्याप्त समय में उस 'वीर' नामक महान चन्द्र ने जनों के कल्याण के लिए जन्म लिया।
'वीर' ने जन्म लेकर 'वर्द्धमान' नाम सार्थक करते हुए महावीरत्व की साधना पूर्ण की। वे पूर्ण-ज्ञान होते ही केवल ज्ञानी-सर्वज्ञ बने । उनके सद्विचारों का सम्प्रेषण दिव्यध्वनि के माध्यम से हुआ। उन्होंने आचार सिखाने से पूर्व अपने विचारों से मानव हृदयों, पशु-पक्षियों तक को अभिसिंचित किया। उनकी धारणा थी कि विचार विहीन आचार जड़ता का प्रतीक है। नीति कहती है
चारित्रं नरवृक्षस्य सुगंधि कुसुमं शुभम् ।
आकर्षणं तथैवात्र लोकानां रंजनं महत् ॥ अर्थात् चारित्र मनुष्य रूपी वृक्ष का सुन्दर, सुगन्धित पुष्प के समान ही उदात्त चरित्र सबको अपनी ओर आकृष्ट करता है और सबको प्रसत्रता प्रदान करता है।
इस चारित्र की सुगन्ध तभी हो सकती है जबकि यह व्यक्ति धर्म से जुड़ धर्मात्मा बने। धर्मपालन मन की शुद्धि, विचारों की शुद्धि एवं कार्यो की शुद्धि से ही संभव है। मन की शुद्धि के विषय में कहा गया है कि
मनः शुद्धयैव शुद्धिः स्याद् देहिनां नात्र संशयः।
वृथा तद्व्यतिरेकेण कायस्यैव कदर्यनम् ॥ अर्थात् मन की शुद्धि से आत्मा की शुद्धि होती है। मन की शुद्धि के बिना केवल शरीर को कष्ट देना व्यर्थ है। सच्चारित्र की प्राप्ति के लिए जितेन्द्रिय होना आश्यक है। 'ज्ञानार्णव' में आचार्य शुभचन्द्र ने लिखा है कि
इन्द्रियाणि न गुप्तानि नाभ्यस्तश्चितनिर्जये। न निवेदः कृतो मित्र नात्मा दुःखेन भावितः॥