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अनेकान्त 59 / 3-4
परिच्छेदो गृहीति पञ्चमणुव्रतम् १८ अर्थात् गृहस्थ, धन, धान्य और क्षेत्र आदि को स्वेच्छा से परिमाण कर लेता है इसलिए उसके पाँचवां परिग्रह परिमाण अणुव्रत होता है । 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' के अनुसार
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जो लोहं णिहणित्ता संतोस रसायणेण संतुट्ठो । हिदि तिण्हादुट्ठा मण्णंतो विणस्सरं सव्वं ॥ जो परिमाणं कुव्वदि धण - धण्ण - खित्तमाईणं । उवयोगं जाणित्ता अणुव्वदं पंचमं तस्स ॥ २१
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अर्थात् जो लोभ कषाय को कम करके, सन्तोष रूपी रसायन से सन्तुष्ट होता हुआ, सबको विनश्वर जानकर धन, धान्य, सुवर्ण और क्षेत्र वगैरह का परिमाण करता है उसके पाँचवां (परिग्रह परिमाण) अणुव्रत है ।
'रत्नकरण्ड श्रावणकाचार' में आचार्य समन्तभद्र देव ने कहा है किधनधान्यादि ग्रन्थं परिमाय ततोऽधिकेषु निःस्पृहता । परिमितपरिग्रहः स्यादिच्छापरिमाणनामापि ॥२०
अर्थात् धन-धान्यादि दश प्रकार के परिग्रह को परिमित अर्थात् उसका परिमाण करके कि 'इतना रखेंगे' उससे अधिक में इच्छा नहीं रखना सो परिग्रह परिमाणव्रत है तथा यही इच्छा परिमाण वाला व्रत भी कहा जाता है ।
इस प्रकार संचित परिग्रह को निरन्तर कम-कम करते जाने का संकल्प तथा संकल्पानुसार कार्य परिग्रहपरिमाण कहा जाता है।
परिग्रह परिमाण आवश्यक
परिग्रह संचय एक मानवीय मानसिक विकृति है जिसके कारण व्यक्ति जीवन भर दुख उठाता है तथा पाँचों पापों के कार्यों में संलग्न होता है । यहाँ तक कि परिग्रही की धारणा ही बन जाती है कि