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अनेकान्त 59/3-4
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शुद्धैधनैर्विवर्धन्ते सतामपि न सम्पदः।
न हि स्वच्छाम्बुभिः पूर्णाः कदाचिदपि सिन्धवः ॥१५ आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी के अनुसार परिग्रह में हिंसा होती हैहिंसा पर्यात्वसिद्धा हिंसान्तरंगसङ्गेषु।
बहिरङ्गेषु तु नियतं प्रयातु मूळंव हिंसात्वम् ॥१६ अर्थात् हिंसा के पर्यायरूप होने के कारण अन्तरंग परिग्रह में हिंसा स्वयं सिद्ध है और बहिरंग परिग्रह में ममत्व परिणाम ही हिंसा भाव को निश्चय से प्राप्त होते हैं।
परिग्रह त्याग की प्रेरणा
जैनाचार्यों ने परिग्रह त्याग हेतु इसे अणुव्रत, प्रतिमा एवं महाव्रत के अन्तर्गत रखा है। अणुव्रत एवं प्रतिमा सद्गृहस्थ श्रावक एवं परिग्रह-त्याग-महाव्रत मुनि धारण करते हैं।
परिग्रह परिमाणपरिग्रह दुःख मूलक होता है। ‘ज्ञानार्णव' में कहा गया है कि
संगात्कामस्ततः क्रोधस्तस्माद्धिंसा तयाशुभम् ।
तेन श्वामी गतिस्तस्यां दुःखं वाचामगोचरम् ॥१७ अर्थात् परिग्रह से काम होता है, काम से क्रोध, क्रोध से हिंसा, हिंसा से पाप और पाप से नरकगति होती है। उस नरकगति में वचनों के अगोचर अति दुःख होता है। इस प्रकार दुःख का मूल परिग्रह है।
दुःख रूप परिग्रह से बचने के लिए जैनाचार्यों ने परिग्रह के परिमाण (सीमित) करने को अणुव्रत के रूप में मान्यता दी है।
'सर्वार्थसिद्धि' के अनुसार- 'धनधान्यक्षेत्रादीनामिच्छावशात् कृत