________________
अनेकान्त 59/3-4
राम की चिड़िया, राम का खेत।
खा मेरी चिड़िया, भर ले पेट । संग्रह की प्रवृति समाज में उथल-पुथल मचा देती है जिसमें अभाव का रूप क्रान्ति का रूप धारण कर लेता है। यहाँ तक कि परिग्रही व्यक्ति विक्षिप्त जैसा हो जाता है, जिसे हर पल परिग्रही की ही धुन सवार रहती है। नीति भी कहती है कि
कनक-कनक तैं सौ गुनी, मादकता अधिकाय।
या खाये बौरात जग, बा पाये बौराय ॥ आचार्य उमास्वामी ने मनुष्यगति के आसव में अल्पआरम्भ और परिग्रह का भाव प्रमुख माना है- 'अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य ।'२१ वहीं बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह वाले का भाव नरकायु का आस्रव है"बह्वारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः।"२२ अब यह हमें विचार करना है कि हम परिग्रह का परिमाण करके मनुष्य बनना चाहते हैं या बहुत अधिक परिग्रह का संचय करके नरकगति का दुःख भोगना चाहते हैं। कबीर ने इसीलिए कहा कि
पानी बादै नाव में, घर में बाढ़े दाम।
दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानो काम ॥२३ कुछ लोग धर्म, दान, पूजा आदि के लिए धनादि परिग्रह संचय को उचित मानते हैं किन्तु 'क्राइस्ट' का कथन है कि “पैसा बटोरकर दान करना वैसा ही है जैसा कि कीचड़ लगाकर धोना।" संस्कृत में सूक्ति है कि- “प्रक्षालानाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम्' अर्थात् कीचड़ लगने पर धोने से अच्छा है कि उसे दूर से ही त्याग दें। उसी प्रकार परिग्रह संचय कर दान करने की अपेक्षा परिग्रह त्याग ही उचित है। गृहस्थ को तो अपनी आवश्यकता के अनुरूप परिग्रह परिमाण ही करना चाहिये।
परिग्रह संचय का ही यह दुष्परिणाम है कि एक ओर जहाँ लोग भूख से मर रहे हैं वहीं दूसरी ओर धनाढ्य वर्ग गरिष्ठ भोजन करके