Book Title: Anekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 199
________________ अनेकान्त 59 / 3-4 बचाना शक्य न हो तो उसमें भरे हुए माल को बचाने का प्रयत्न करता है । इसी प्रकार धर्म रक्षा के लिए धर्म का साधन शरीर है, उसे पहिले बचाना चाहिए । परन्तु यदि उसका बच पाना सम्भव नहीं दिखे तो धर्म की रक्षा का प्रयत्न किया जाना चाहिए । 62 जीवन में जन्म जितना सत्य है मृत्यु उतनी ही अपरिहार्य है । परन्तु जीवन मोह के कारण मनुष्य इस सत्य को भुला देता है । साधु या व्रती श्रावक को जीवन में हर्ष और मृत्यु में खेद नहीं करना चाहिए। जिसकी मृत्यु शानदार होती है उनका जीवन भी शानदार होता है । रोकर या विलाप करते हुए प्राणों का त्याग करना कायरता है । साहसपूर्वक मृत्यु का अलिंगन करते हुए इसे मंगल महोत्सव के रूप में अपनाना चाहिए। आगम में मरण पाँच प्रकार का कहा गया है 1. पण्डित पण्डित मरण- आयोग केवली या बारहवें गुणस्थानवर्ती क्षीण कषाय वले इस प्रकार का मरण करते है । 2. पण्डित मरण के 3 भेद होते है- (i) भक्त प्रतिज्ञा (ii) पादोपगमन मरण और (iii) इंगिनी मरण जो महाव्रत धारी साधु के होता है । 3. बाल पण्डित मरण- विरताविरत संयमी जीव का बाल पण्डित मरण होता है । 4. बाल मरण - अविरत सम्यक्दृष्टि जीव के बाल मरण होता है । 5. बाल बाल मरण- मिथ्यादृष्टि के यह मरण होता है। पायोपगमणमरणं भत्तपइण्णा य इंगिणी चेव । तिविहं पण्डितमरणं साहुस्स जहुत्तचारिस्स ॥ भ.आ. 28 पण्डित मरण के 3 भेदों में भक्तप्रतिज्ञा मरण में आचरण शील साधु स्वयं अपनी वैय्यावृत्य करता है और दूसरों से भी कराता है। इंगिणीमरण में वह अपनी वैय्यावृत्य स्वयं करता है, परन्तु दूसरों से नहीं कराता है तथा पादोपगमन (प्रायोपगमन) में न स्वयं अपनी सेवा करता

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