________________
अनेकान्त 59/3-4
एवमेवापवर्गाय प्रवृत्तान साधने।
स्वयमेव वञ्चितं मूढलॊकस्यपथच्युतै ॥२ अर्थात् हे मित्र! जिसने इन्द्रियों को वश में नहीं किया, चित को जीतने का अभ्यास नहीं किया, वैराग्य को प्राप्त नहीं हुए, आत्मा को कष्टों से भाया नहीं और वृथा ही मोक्ष हेतु ध्यान में प्रवृत्त हो गये; उन्होंने अपने को ठगा और इह लोक, परलोक; दोनों से च्युत हुए। कहने का तात्पर्य यही है कि इन्द्रियजयी होने पर ही चारित्रिक श्रेष्ठता प्राप्त होती है।
भगवान महावीर से पूर्व यह धारणा बन गई थी कि धर्मसाधन तो वृद्धावस्था में करणीय है; किन्तु भगवान महावीर ने कहा कि धर्म के लिए कोई उम्र नहीं होती वह तो बचपन में भी किया जा सकता है, घोर युवावस्था में भी। उन्होंने तीस वर्ष की युवावस्था में दिगम्बर दीक्षा ग्रहण कर अपनी साधना को एक नया आयाम ही नहीं दिया, अपितु आध्यात्मिक क्रान्ति का शंखनाद किया; जिसका चरम और परम लक्ष्य था- स्वयं को जीतो। जो स्वयं को जीतता है वास्तव में वही जिन है। भगवान महावीर ने कहा कि जीतना है तो स्वयं का जीतो, मारना है तो स्वयं के विकारों को मारो। भेद देखने वाला संसारी हे और जो भेद में भी अभेद (आत्मा) को देख लेता है वह मोक्षार्थी है । सबजीवों से ममता तोड़ो और समता जोड़ो। शस्त्रप्रयोग मत करो और जिनवचन रूप शास्त्रों के विरुद्ध आचरण मत करो। भगवान महावीर ने काम जीता, कषायें जीती, इन्द्रियों को जीता और विषमता के शमन हेतु समता को अपनाया और मोक्ष पाया। हमारा यही लक्ष्य होना चाहिए।
गांधी जी ने इस युग में भगवान महावीर के दर्शन का आत्मसात् किया था। उन्होंने लिखा कि “ जो आदमी स्वयं शुद्ध है, किसी से द्वेष नहीं करता, किसी से अनुचित लाभ नहीं उठाता, सदा पवित्र मन रखकर व्यवहार करता है, वह आदमी धार्मिक है वही सुखी है और वही