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अनेकान्त 59 / 3-4
"पढ़ाई के बाद सन् 36 में जब अम्बाला शास्त्रार्थ सघ में उपदेशक विद्यालय खुलने की बात मेरे पिता के ध्यान में आई तब उन्होंने पुराने शास्त्रार्थ की बात याद कर मुझे आदेश दिया कि शास्त्रार्थ संघ में चले जाओ । बस, स्वीकृति आने पर मैं पहुंच गया। 15-5-36 के उद्घाटन पर उपदेशक विद्यालय का मैं तत्त्वोपदेशक विभाग का सबसे छोटी उम्र का और प्रथम छात्र था। उन दिनों पं० बलभद्र जी संघ के मैनेजर थे- हमारे आफीसर । फिर भी सादा, सरल। उन्होंने मुझे भाई सरीखा स्नेह दिया। आश्रम का छात्र होने के कारण संघ में मुझे ब्रह्मचारी का संबोधन मिला।"
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शास्त्रार्थ संघ अम्बाला में पहुँचकर उपदेशक के रूप में कार्य करते हुए व्यख्यान शास्त्रार्थ की शिक्षा पाई। इस संघ ने अपने व्यय से ही आपको वाराणसी भेज दिया था। यहाॅ किराए का मकान लेकर रहे और ब्राह्मण विद्वानों से वेदों का अध्ययन किया और कलकत्ते से होने वाली 'वेदतीर्थ' परीक्षा उत्तीर्ण की। ये पूरा का पूरा अध्ययन शास्त्रार्थ में काम आता था । वहॉ की पढ़ाई पूरी करने के बाद पुनः संघ में आ गए। अम्बाला शास्त्रार्थ संघ की शाखा मथुरा से फिरोजपुर छावनी चले गए। यहाॅ पर जैन हाई स्कूल में अध्यापक रहे और जैन जिज्ञासुओं को स्वाध्याय कराया; यहाँ 6-7 वर्ष रहे पुनः 1 वर्ष मथुरा रहकर जैन समाज में पढ़ाया । इसके बाद मुल्तान (पंजाब) में एक वर्ष ही रह पाये थे । दंगे शुरू हो जाने के कारण सपरिवार घर बिल्सी आ गए। कुछ दिनों घर रहने के बाद दिगम्बर जैन स्याद्वाद महाविद्यालय, भदैनी घाट, वाराणसी में 12-13 वर्ष व्यवस्थापक रहते हुए अध्यापन भी करते रहे ।
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डॉ० नेमीचन्द्रशास्त्री, ज्योतिषाचार्य उन दिनों वाराणसी आते-जाते रहते थे । उनके सपरामर्श से पंडित जी ने यू० पी० बोर्ड का हाई स्कूल; वा० सं० वि० वि० से जैनदर्शन शास्त्री और प्राकृत से एम० ए० की परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थीं। इनका इस प्रकार का शैक्षिक विकास के साथ जब उनके स्वाभिमान को ठेस लगने के कारण उपस्थित हुए तो विद्यालय की सेवायें छोड़ दी । परिणामतः आर्थिक कठिनाइयों से भी उन्हें दो-चार होना पड़ा। परन्तु सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति, मितव्ययी कुशल गृहणी और आपकी पत्नी श्रीमती कमलेश जैन का साहस और हौंसला देखते ही बनता था। वे अपने परिवार के अलावा विद्यार्थियों के लिए भी अन्नपूर्णा माँ की भूमिका बराबर निभाती रही। ऐसे अवसरों पर पंडित फूलचन्द सिद्धांत शास्त्री विद्वान् हों अथवा जैन विद्यार्थी सभी की सहायता करने के लिए तत्पर रहते थे। उनके आशीर्वाद सदैव साथ रहे। बच्चों की शिक्षा बराबर