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अनेकान्त 59 / 3-4
प्रमाण से अभिन्न और भिन्न माना है 53 तथा समन्तभद्र का समर्थन किया है। विद्यानन्द ने अज्ञाननिवृत्तिरूप स्वार्थ व्यवसित को प्रमाण फल की व्याख्या में संयुक्त कर विशिष्ट बौद्धिकता का परिचय दिया है। 54
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जैनप्रमाण शास्त्र को समृद्ध और विकसित स्वरूप प्रदान करने वाले आचार्यो का उनके कृतित्व सहित कालक्रम से विस्तृत विवरण देना इस आलेख में सम्भव नहीं है। संक्षिप्त रूप में हम कह सकते हैं कि उमास्वामी, समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंक हरिभद्र, अनन्तवीर्य, विद्यानन्द, वसुनन्दि, माणिक्यनन्दि, वादीभसिंह, अभयदेवसूरि, प्रभाचन्द्र, हेमचन्द्र, मल्लिषेण एवं यशोविजय - 18वीं शती आदि आचार्यो ने जैनप्रमाण शास्त्र के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। वींसवी – इक्कीसवीं शती के मुनिराज श्रीप्रमाणसागर जी द्वारा सरल और प्रांजल भाषा में सृजित 'जैनधर्म और दर्शन' एक ऐसी अनूठी कृति है, जिसके स्वाध्याय से जैनधर्म दर्शन के दुरूह गम्भीर विषयों को अत्यन्त सुगम रीति से हृदयंगम किया जा सकता है। यदि उनके द्वारा जैनप्रमाण शास्त्र के इतिहास का इसी तरह सरल भाषा में लेखन हो जाये, तो जैनन्याय के जिज्ञासुओं का महान् कल्याण हो सकता है।
निष्कर्ष यह कि प्रमाण व्यास्था से पूर्व सभी दर्शनों में प्रायः जड़ और चेतन की स्वतंत्र वास्तविकता को स्वीकार किया गया है। इनके स्वरूप और पारस्परिक सम्बन्ध की स्थिति सत्य सिद्ध करने के लिए सभी ने कसौटी के रूप में प्रमाण व्यवस्था से पूर्व विद्या अविद्या, सम्यक् मिथ्या आदि को आधार बनाकर अपने मत को स्थापित करने के प्रयत्न किये। बाद में लगभग ईसा की प्रथम शती में प्रायः सभी भारतीय दर्शनों के द्वारा वस्तुतत्त्व की सत्यता सिद्ध करने के लिए मानक के रूप में प्रमाण को मान्य किया । प्रमाण का सूत्रपात एवं प्रमाण व्यवस्था का ऐतिहासिक काल प्रायः सभी दर्शनों का समान है। सामान्यरूप से प्रमा के साधकतम करण को भी सभी ने प्रमाण माना है, परन्तु करण के विषय में, अन्यदर्शनों से जैनदर्शन की दृष्टि भिन्न है । अन्यदर्शनों में जहां ज्ञान के कारण को प्रमाण एवं ज्ञान को उसका फल कहा है। वहां