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अनेकान्त 59/3-4
सन्दर्भ में मतभेद दृष्टिगोचर होते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगमों में प्रमाण, प्रमाण भेद, नय आदि की विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है, परन्तु दिगम्बर परम्परा में उमास्वामी से पूर्व प्रमाण का वैसा विवेचन नहीं पाया जाता है। प्रमाण, नय आदि के दार्शनिक शैली में विवेचन से पूर्व इनके विकास का प्रमुख आधार ज्ञान का विवेचन आत्मा की क्रमिक विशुद्धता को केन्द्रबिन्दु बनाकर आगमिक शैली में किया जाता रहा है। कर्मबद्ध आत्मा का ज्ञान जितने अंशों में आत्मसापेक्ष एवं जितने अंशों में इन्द्रिय सापेक्ष होकर प्रकट होता है, उसी के आधार पर उतने अंशों में उसकी क्रमिक प्रमाणिकता का निर्णय किया जाता रहा। प्रमाण के भेद निर्धारण करने में भी यही सैद्धान्तिक मान्यता आधार बनी। दार्शनिक युग से पूर्व दिगम्बर आगमिक परम्परा में प्रमाण का कार्य ज्ञान के द्वारा सिद्ध किया जाता था। दोनों में अन्तर इतना था कि आगमिक परम्परा में ज्ञान की मीमांसा मोक्षमार्ग को केन्द्रबिन्दु मानकर होती रही, जबकि प्रमाणमीमांसा का क्षेत्र मोक्षमार्ग के साथ सम्पूर्ण बाह्य जगत् तक विस्तृत हो गया। इस युग में आचार्यों द्वारा अपने ग्रन्थों में हेय-उपादेय और ज्ञेय दृष्टि से विवेचन किया गया। उन्होंने हेय और उपादेय के विवेचन के लिए निश्चय और व्यवहार नयों का आश्रय लिया तथा ज्ञेय दृष्टि से विवेचन के लिए द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नयों का आश्रय लिया। विक्रम की पांचवी शती में संकलित श्वेताम्बर आगमों में ज्ञान के स्वतंत्र विवेचन के साथ प्रमाण की भी स्वतंत्र चर्चा की गयी।
पं. दलसुख मालवणिया' और पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ने जैनदर्शन के साहित्यिक विकास को चार युगों में विभक्त किया है। 1. आगम युगविक्रम की पाचवी श तक 2. अनेकान्त व्यवस्था युग- विक्रम की आठवीं शती तक 3. प्रमाण व्यवस्था युग- विक्रम की सत्रहवीं शती तक और !. नवीन न्याय युग- आधुनिक समय पर्यन्त। डॉ. दरवारी लाल कोटिया ने ई.200 से ई.650 नक आदिकान अथवा समन्तभद्र काल, ई. 650 से 1050 तक मध्यकाल अथवा अकलंक कान एवं ई.1050 से ई