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अनेकान्त 59/3-4
जीवन होम कर डाला है। उस चिन्तन-मनन और मन्थन से जो नवनीत प्राप्त किया है, उसे अपने निबन्धों, व्याख्यानों और चर्चाओं के माध्यम से समाज को ही निःस्वार्थ-निर्लोभ भाव से भेंट कर दिया है। कुन्द-कुन्दाचार्य के ग्रन्थों में प्रतिपादित जैन-सिद्धान्त, दर्शन और धर्म के प्रति आपकी श्रद्धा, आस्था और विश्वास ही नहीं, आचरण में भी उसे व्यवहृत करके दिखाया है। ___'मूलं जैन-संस्कृति : अपरिग्रह' शीर्षक आपकी लघुकाय रचना को विद्वत्समाज ने बहुमान दिया है। कुछ ही समय में हिन्दी भाषा में न केवल तीसरा संस्करण छापना पड़ा है, अपितु उसका अंग्रेजी भाषा में अनुवाद होकर पुस्तक विदेशों में भी अपनी छाप छोड़ रही है। आपने ‘अपरिग्रह' जैसे विषय पर लिखा ही नहीं है, बल्कि अपने वास्तविक जीवन में जिया भी है। 'प्रत्यक्षे किं प्रमाणं' हमने देखा है, एक ओर जहाँ ज्यादातर विद्वान् पुरस्कारों की जुगत भिड़ाते देखे जा सकते हैं; वहीं आप पुरस्कार में प्राप्त धनराशि संस्था के सदुपयोग के लिए भेंट करते हैं। आज इस प्रकार की निर्लोभ एवं त्यागवृत्ति विरल हो गई है। ___मैं ऐसा मानकर चल रहा हूँ कि पंडित पद्मचन्द्र शास्त्री का आत्मकथ्यात्मक कोई कृति या आलेख नहीं है, तो एक संक्षित परिचय ही उनकी नवीन पुस्तक में दे देना अनुपयुक्त नहीं होगा। किन्हीं कारणोंवश मेरे लिए इनका परिचय लिखना दुरूह है, तथपि प्रयत्न करता हूँ। इसमे समस्या एक तो यही है, 'हल्का कहूँ तो बहु डरूँ, भारी कहूँ तो झूठ'... । इसीलिए कबीर ने आगे 'मैं का जानें....' लिखकर स्वयं को सुरक्षित कर लिया था। मैंने तो जब 'ओखली में सिर रख लिया है तो चोटों से क्या डरना'? जो भी सही-सही जानकारी कर सका हूँ उसी आधार पर लिखता
पंडित जी का जन्म कार्तिक शुक्ला अष्टमी विक्रम सं० 1972 को जिला बदायूँ, उ०प्र० के कस्बा बिलसी में स्वनामधन्य पिता श्री चिरंजीलाल जैन बाकलीवाल के यहाँ हुआ था। माता श्रीमती कटोरी-बाई सरल एवं शान्त स्वभाव की धार्मिक गृहणी थी। अच्छे जैन परिवार में पुत्र का जैसा लालन-पालन होता है, आपका भी उत्तम रीति से हुआ था। उचित समय पर प्रारम्भिक कक्षा 5 तक की शिक्षा बिल्सी में ही पूरी की थी। आगे की शिक्षा के लिए पिता श्री ने 'ऋषभ' ब्रह्मचर्याश्रम चौरासी, मथुरा को चुना और वहीं भेज दिया। सौभाग्य से इसके आगे का विवरण पंडित जी के ही एक लेख में 'जिन खोजा तिन पाइयाँ' की तर्ज पर मेरे हाथ लग गया है। जिसे किसी खास व्यक्ति के संस्मरण के दौरान पंडित जी