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अनुपम श्रुत आराधक पंडित पद्मचन्द्र शास्त्री
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान ।। कबीर ।।
प्रस्तुत दोहे के निहितार्थ तथा सैद्धान्तिक पक्ष से मैं सर्वथा सहमत हूँ। परन्तु व्यावहारिक पक्ष से असहमति है। चूंकि आज जब हमें प्राचीन विद्वानों के ग्रन्थों की पाण्लिपियाँ देखने को मिलती हैं, तो स्वभावतः रचनाकार, रचनाकाल, एवं स्थान आदि के विषय में जिज्ञासा होती है। यदि उनमें ये सब नहीं दिया गया है तो पाण्लिपि के संदिग्ध हो जाने का ख तरा पैदा होने के अलावा अन्य समस्यायें भी सामने आते देखी जाती हैं और फिर मेरा मानना है कि लेखक हो या कोई व्यक्ति, अपने जीवन के विषय में वह स्वयं जो जान सकता है, वह दूसरा नहीं जान सकता। अपने इसी सोच को दृष्टि में रखते हुए मैंने पंडित पद्मचन्द शास्त्री के समक्ष उनके जीवन-परिचय के सन्दर्भ में जब-जब कोई प्रश्न उठाया होगा, तब-तब उन्होंने मुझे जैनागमों से सम्बन्धित चर्चा में उलझाकार मेरे प्रश्न को आकाश के हवाले करते हुए अनुत्तरित ही रहने दिया होगा। ऊपर से एक मीठी झिडकी खिलाकर कहेंगे, ‘आराम कर ले थक गया होगा।' अरे ऽ प्रेम तुम लोग समझते नहीं हो; इस परिचय-वरिचय में क्या रखा है? सुनोऽ, ‘परमार्थ शतक में पंडित रूपचन्द ने लिखा है:
वेतन चित्परिचय बिना, जप तप सबै निरत्य। कन बिन तुस जिमि फटकते, आवै कछू न हत्य।। चेतन सौं परिचय नहीं, कहा भये व्रत धारि। सालि बिहूनें खेत की, वृथा बनाबत बारि।।
जैनागम शास्त्रों के मर्मज्ञ, प्राकृत-संस्कृत, अपभ्रंश जैसी प्राच्य भाषाओं के ज्ञाता प्रकाण्ड पंडित तथा कुन्द-कुन्दाचार्य भगवान के ग्रन्थों पर साधिकार व्याख्यान देने में समर्थ पंडित पद्मचन्द शास्त्री को, भला हम कैसे समझाएँ कि आप जिज्ञासुओं के लिए 'कन बिन तुस' अथवा 'सालि बिहूने खेत' के समान नहीं हैं। आपने प्राच्य भाषा प्राकृत के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के चिन्तन-मनन में अपना समग्र