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अनेकान्त 59/3-4
को लिखना अपरिहार्य हो गया होगा। प्रसन्नता है, कुछ तो भार हल्का हुआ। आगे उद्धृत है:
“लगभग सन् 1927 के चैत्र मास की बात है, जब श्री कुँवर दिग्विजयसिंह जी अहिक्षेत्र के मेले के बाद बिलसी पहुंचे। उनके साथ मथुरा ब्रह्मचर्याश्रम के प्रचारक पं० सिद्धसेन गोयलीय और एक पगड़ी धारी पंडित जी श्री देवीसहाय जैन- (सम्भवतः सलावा वाले थे) भी थे। उन दिनों आर्य समाज के प्रचार का युग था। आये दिन आर्य समाजियों से जैनियों के विवाद चलते रहते थे। मेरे पिता जी की ऐसे विवादों में रूचि थी-उन्हें ज्यादा रस आता था-जैन की बात पोषण में । कुँवर साहब के आने से शास्त्रार्थ का वातावरण बन गया। नियम-समय आदि निर्धारित हो गए। आर्य समाज ने अपनी ओर से बरेली के पं० बंशीधर शास्त्री को नियुक्त किया और जैन की ओर से कुँवर साहब बोले। कुँवर साहब को वहाँ कई दिन ठहरना पड़ा।
मुझे याद है कटरा बाजार में मेरे ताऊ श्री दुर्गा प्रसाद जी की दुकान के सामने काफी भीड़ थी। दोनों ओर मेजें लगी थी। दोनों विद्वान् बारी-बारी बोलते थे। सभापति का आसन विलसी के प्रमुख रईस श्री गेंदनलाल ने (जो अजैन थे) ग्रहण किया था। नतीजा क्या रहा मुझे नहीं मालूम? हाँ, दोनों ओर की तालियों की गड़गड़ाहट और जयकारों का मुझे ध्यान है। अगले दिन कुवँर साहब के सुझाव पर, वातावरण से प्रभावित मेरे पिता ने मुझे विद्वान बनाने का संकल्प ले लिया और मथुरा ब्रह्मचर्याश्रम में भेजने का निश्चय प्रकट किया। कुँवर साहब ने मेरे सिर हाथ रखकर मुझे विद्वान् पंडित बनने का आशीर्वाद दिया और गोयलीय जी से कहा-इस बालक की अच्छी व्यवस्था करना । मुझे भली-भांति याद है उस समय कँवर साहब सफेद चादर ओढ़े, सफेद चाँदी फ्रेम वाला चश्मा लगाए थे और उनकी दाढ़ी मन मोह रही थी। कुछ महीनों में मैं आश्रम में पहुंच गया। मेरे पिता नहीं चाहते थे कि वे मेरा बोझ समाज पर डालें, फलतः- उन्होंने खुशी से आश्रम को पांच रुपए मासिक देना स्वीकार किया और राशि बराबर पहुंचती रही। उन दिनों पांच रुपयों की बड़ी कीमत थी।" उन दिनों माणिकचन्द दिगम्बर जैन परीक्षालय शोलापुर की बड़ी मान्यता थी। मथुरा में पढ़ाई करते हुए ही आपने जैन धर्म, न्याय, शास्त्री आदि की परीक्षाएं पास की थीं। कलकत्ता से होने वाली 'व्याकरणतीर्थ' की कठिन परीक्षा भी उत्तम श्रेणी में पास की। इस प्रकार पढ़ाई करते हुए पंडित जी मथुरा ही रहे। आगे उन्होंने लिखा है