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अनेकान्त 59/1-2
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जैन व्याकरण एवं तत्व मर्मज्ञ होने के साथ ही आयुर्वेद के भी ज्ञाता थे। इन्होंने अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया है जो उनके पाण्डित्य एवं वैदूष्य का सूचक है। इन्होंने जिन ग्रंथों की रचना की है उनमें 'निघण्टु शेष' आयुर्वेद की दृष्टि से महत्वपूर्ण है जिसमें चिकित्सोपयोगी अनेक वानस्पतिक द्रव्यों के गुणधर्म का विवेचन किया गया है। इसके अतिरिक्त 'निघण्टु कोश' नामक एक ग्रंथ में भी उन वनस्पतियों के सार्थक पर्याय सहित उनके गणधर्मों का विवेचन किया गया है जिनका समावेश 'अभिधान चिन्तामणि' में नहीं किया गया है।
कीर्तिवर्मा (1125)
ये दक्षिण भारतीय (कर्नाटक के) जैन धर्मानुयायी चालुक्य राजा थे। इन्होने कन्नड़ में 'गो वैद्यक' नामक ग्रंथ की रचना की थी। उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर इनका समय 12वीं शताब्दी निर्धारित किया गया है।
गुणाकार (1239 ई.)
ये श्वेताम्बर आचार्य थे। इन्होंने नागार्जुन कृत आयुर्वेद के ग्रंथ 'योगरत्नमाला' अपर नाम 'आश्चर्यरत्नमाला' पर विवृति नामक टीका लिखी है जिसका रचना काल वि.सं. 1296 (1239 ई.) है।
पं. आशाधर (1240)
जैन विद्वानों में पं. आशाधर जी अत्यधिक आदरणीय मनीषि हैं। जैन साहित्य के रचनाकारों में अपने समय के मेधावी उद्भट मनीषि पं. आशा र जी दिगम्बर सम्प्रदाय के बहुश्रुत प्रतिभाशाली ग्रंथकार माने जाते है। जिनकी काव्य प्रतिभा धर्म और साहित्य के साथ साथ दर्शन, न्याय, व्यांकरण, योग, अलंकार, वैद्यक आदि के ग्रंथों की रचना में अभिव्यक्त हुई है। इनके द्वारा रचित विशाल ग्रंथ राशि को देखकर इनके प्रकाण्ड