Book Title: Agam Suttani Satikam Part 25 Aavashyaka
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Shrut Prakashan

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Page 265
________________ २६२ आवश्यक मूलसूत्रम् -२-५/३९ नि. (१५१९) सेसा उ जहासत्तिं आपुछित्ताण ठंति सट्टाणे । सुत्तत्थसरणहेउं आयरिएँ ठियंमि देवसियं ।। वृ- 'सेसा उ जहासत्ती' गाहा व्याख्या-शेषास्तु साधवो यथाशक्ति-शक्तयनुरूपं यो हि यावन्तं कालं स्थातु समर्थः आपुछित्ता गुरू ठंति सट्ठाणे सामायिकं काऊण,किंनिमित्तं ? 'सुत्तत्थसरणहेउं' सूत्रार्थस्मरणनिमित्तं-'आयरिए ठियंमि देवसियं' आयरिए पुरओ ठिए तस्स सामाइयावसाणे देवसियं अइयारं चितेंति, अन्ने भणंति-जाहे आयरिओ सामाइयं कड्डइ ताहे तेवि तयट्ठिया चेव सामाइयसुत्तमनुपेहंति गुरुणा सह पच्छा देवसियं ति गाथार्थः ।। शेषाश्च यथा शक्तिरित्युक्तं, यस्य कायोत्सर्गेण स्थातुं शक्तिरेव नास्ति स किं कुर्यादिति तद्गतं विधिमभिधित्सुराहनि. (१५२०) जो हुन्ज उ असमत्थो बालो वुड्डो गिलाण परितंतो।। सो विकहाइविरहिओ झाइजा जा गुरू ठति ।। वृ- 'जो हुज्ज उ असमत्थो' गाहा व्याख्या-यः कश्चित् साधु वेदसमर्थः कायोर्सेण स्थातुं, स किंभूत इत्याह-बालो वृद्धो ग्लानः 'परितंतो'ति परिश्रान्तो गुरुवैयावृत्यकरणादिना असावपि विकथादिविरहितः सन् ध्यायेत् सूत्रार्थं 'जा गुरू ठंति'त्ति यावद् गुरवस्तिष्ठन्ति कायोत्सर्गमिति गाथार्थः । आचार्ये स्थिते दैवसिकमित्युक्तं तद्गतं विधिमभिधित्सुराहनि. (१५२१) जा देवसिअं दुगुणं चिंतइ गुरू अहिंडओऽचिहुँ । बहुवावारा इअरे एगगुणं ताव चिंतंति ॥ वृ- 'जा देवसियं दुगुणं चिंतइ' गाहा -निगदसिद्धा, नवरं चेष्टा व्यापाररूपाऽवगन्तव्या॥ नि. (१५२२) नमुक्कारचउवीसगकिइकम्मालोअणं पडिक्कमणं । कालेन तदुचिएणं पारेई थोवचिट्ठोऽवि ॥ वृ-नमोक्कारचउवीसग' गाहा व्याख्या-'नमोक्कारे त्ति काउस्सग्गसमत्तीए नमोक्कारेण पारेंति नमो अरहंताणंति, 'चउवीसग' त्ति पुणो जेहिं इमं तित्थं देसियं तेसिं तित्थगराणं उसभादीणं चउवीसत्थएणं उक्वित्तणं करेंति, लोगस्सुजोयगरेणंति भणियं होति, "कितिकम्मे'त्ति तओ वंदिउंकामा गुरुं संडासयं पडिलेहित्ता उवविसंति, ताहे मुहणंतगं पडिलेहिय ससीसोवरियं कायं पमजंति, पमञ्जित्ता परेण विनएण तिकरणविसुद्धां कितिकम्मं करेंति, वन्दनकमित्यर्थः, उक्तं च “आलोयणवागरणासं पुच्छणपूयणाए सज्झाए । अवराहे य गुरूणं विनओ मूलं च वंदनग ॥" ___ - मित्यादि 'आलोयणं'ति एवं च वंदित्ता उत्थाय उभयकरगहियरओहरणाद्धावणयकाया पुव्वपरिचिंतिए दोसे जहारायनियाए संजयभासाए जहा गुरू सुणेइ तहा पवड्डमाणसंवेगा भयविप्पमुक्का अप्पणो विशुद्धिानिमित्तमालोयंति, उक्तं च ___ "विनएण विनयमूलं गंतूणायरियपायमूलंमि ।। जाणाविज्ज सुविहिओ जह अप्पाणं तह परंपि ।।१।। कयपावावि मनुस्सो आलोइउ निदिउ गुरुसयास । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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