Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 16
________________ उत्तरज्झयणाणि (१५) भूमिका पांचवें अध्ययन पिण्डैषणा-की व्याख्या है। ओघ- नियुक्ति ओघ-सामाचारी की व्याख्या है। यह आवश्यक नियुक्ति का एक अंश है। विस्तृत कलेवर होने के कारण इसे पृथक्-ग्रंथ का रूप दिया गया। इसलिए इन्हें 'मूल-सूत्रों' की संख्या में सम्मिलित करने की अपेक्षा दशवकालिक और आवश्यक के सहायक ग्रन्थों के रूप में स्वीकार करना अधिक संगत लगता है। अनुयोगद्वार और नंदी-ये दोनों चूलिका-सूत्र हैं। इन्हें 'मूल-सूत्र' वर्ग में रखने का हेतु उपलब्ध नहीं है। सम्भव है बत्तीस सूत्रों की मान्यता के साथ (वि. १६ वीं शताब्दी में) इन्हें 'मूल-सूत्र' वर्ग में रखा गया। श्रीमज्जयाचार्य ने पूर्व प्रचलित परम्परा के अनुसार अनुयोगद्वार और नंदी को 'मूल-सूत्र' माना है। किन्तु इस पर उन्होंने अपनी ओर से कोई मीमांसा नहीं की है। इस प्रकार 'मूल-सूत्रों' की संख्या दो रह जाती हैदशवैकालिक और उत्तराध्ययन । ७. मूल-सूत्रों का विभाजन-काल दशवैकालिक की नियुक्ति, चूर्णि और हारिभद्रीय वृत्ति में मूल-सूत्रों की कोई चर्चा नहीं है। इसी प्रकार उत्तराध्ययन की नियुक्ति, चूर्णि और शान्त्याचार्य कृत बृहद्वृत्ति में भी उनकी कोई चर्चा नहीं है। इससे यह स्पष्ट है कि विक्रम की ११वीं शताब्दी तक 'मूल-सूत्र' वर्ग की स्थापना नहीं हुई थी। धनपाल का अस्तित्व-काल ग्यारहवीं शताब्दी है। उन्होंने 'श्रावक-विधि' में पैंतालीस आगमों का उल्लेख किया है। इससे यह अनुमान होता है कि धनपाल से पहले ही आगमों की संख्या पैंतालीस निर्धारित हो चुकी थी। प्रद्युम्नसूरि (वि. १३ वीं शताब्दी) कृत विचारसार-प्रकरण में भी आगमों की संख्या पैंतालीस है, किन्तु इनमें 'मूल-सूत्र' विभाग नहीं है। उसमें ग्यारह अंग और चौतिस ग्रंथों का उल्लेख मिलता प्रभावक-चरित में अंग, उपांग, मूल और छेदआगमों के ये चार विभाग प्राप्त हैं। यह विक्रम संवत् १३३४ की रचना है। इससे यह फलित होता है कि 'मूल-सूत्र' वर्ग की स्थापना चौदहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हो चुकी थी। फिर उपाध्याय समयसुन्दर के सामाचारी शतक में इसका उल्लेख प्राप्त होता है। ८. दशवकालिक और उत्तराध्ययन का स्थान जैन-आगमों में दशवैकालिक और उत्तराध्ययन का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। श्वेताम्बर और दिगम्बर-दोनों परम्पराओं के आचार्यों ने इनका बार-बार उल्लेख किया है। दिगम्बर-साहित्य में अंग-बाह्य के चौदह प्रकार बतलाए गए हैं। उनमें सातवां दशवकालिक और आठवां उत्तराध्ययन है।" श्वेताम्बर-साहित्य में अंग-बाह्य श्रुत के दो मुख्य विभाग हैं-(१) कालिक और (२) उत्कालिक । कालिक सूत्रों की गणना में पहला स्थान उत्तराध्ययन का और उत्कालिक सूत्रों की गणना में पहला स्थान दशवैकालिक का ६. उत्तराध्ययन आलोच्यमान आगम का नाम 'उत्तराध्ययन' है। इसमें दो शब्द हैं-'उत्तर' और 'अध्ययन'। समवायांग के–'छत्तीसं उत्तरज्झयणा'-इस वाक्य में उत्तराध्ययन में 'छत्तीस अध्ययन' प्रतिपादित नहीं हुए हैं, किन्तु 'छत्तीस उत्तर अध्ययन' प्रतिपादित हुए हैं। नंदी में भी 'उत्तरज्झयणाई' यह बहुवचनात्मक नाम मिलता है। उत्तराध्ययन के अंतिम श्लोक में भी 'छत्तीसं उत्तरज्झाए'ऐसा बहुवचनात्मक नाम मिलता है। नियुक्तिकार ने 'उत्तराध्ययन' का बहुवचन में प्रयोग किया है।" चूर्णिकार ने छत्तीस उत्तराध्ययन का एक श्रुतस्कन्ध (एक ग्रंथ रूप) स्वीकार किया है। फिर भी उन्होंने इसका नाम बहुवचनात्मक माना है।२ इस बहुवचनात्मक नाम से यह फलित होता है कि १. आवश्यकनियुक्ति, गाथा ६६५, वृत्ति पत्र ३४१ : साम्प्रतमोघनियुक्ति बक्तव्या, सा च महत्वात् पृथग्ग्रन्थान्तररूपा कृता। २. समयसुन्दर गणी विरचित श्री गाथा सहस्री में धनपाल कृत 'श्रावक विधि' का उद्धरण है। उसमें पाठ आता है-पणयालीसं आगम (श्लोक २६७, पृ. १८)। ३. विचारलेस, गाथा ३४४-३५१। ४. प्रभावकचरितम्, दूसरा आर्यरक्षित प्रबन्ध २४१ : ततश्चतुर्विधः कार्योऽनयोगोऽतः परं मया। ततोऽङ्गोपाङ्गमूलाख्यग्रन्थच्छेदकृतागमः ।। ५. सामाचारी शतक, पत्र ७६। (क) कषायपाहुड (जयधवला सहित) भाग १, पृ. १३२५ : दसवेयालियं उत्तरज्झयणं। (ख) गोम्मटसार (जीव-काण्ड), गाथा ३६७: दसवेयालं च उत्तरज्झयणं। ७. नंदी, सूत्र ७७,७८ : से किं तं उक्कालिय? उक्कालियं अणेगविहं पण्णत्तं, तं जहा-दसवेयालियं.....। से किं तं कालिय? कालियं अणेगविहं पण्णत्तं, तं जहा-उत्तरज्झयाई..... । ८. समवाओ, समवाय ३६। ६. नंदी, सूत्र ७८। १०. उत्तराध्ययन ३६।२६८। ११. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ४। १२. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ.८ : एतेसिं चेव छत्तीसाए उत्तरज्झयणाणं समुदयसमितिसमागमेणं उत्तरज्झयणभावसुतक्खंथेति लब्भइ, ताणि पुण छत्तीसं उत्तरज्झयणाणि इमेहिं नामेहिं अणुगंतव्याणि। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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